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20.10.07

अल्लाह जानता है...

बेरोजगारी के दिनों को कैसे काटा जाए? कानपुर में बेरोजगार हुवा था तो घर में खूब खाना पकाना किया करता था. बच्चा लोग के साथ फ़िल्म देखने में जुटा रहता था. आजकल भी यही कर रहा हूँ. पिछले दो-तीन दिनों में तीन फिल्में देखीं. लज्जा, वेद और कम्पनी. ये सारी पुरानी फिल्में हैं जिन्हें मैंने देखी नहीं थी. तीनों को ही ढेर सारी सराहना दी मैंने. क्या फिल्में हैं. लगता रहा जैसे कोई उपन्यास पढ़ रहा हूँ. महिलावों पे लज्जा, गुजरात दंगों पे वेद और अंडरवर्ल्ड पे कम्पनी. इनसे इतना कुछ जानने सिखने को मिला की क्या बताऊँ. बीबी बच्चों के साथ किसिम किसिम के खाना खाने और बनाने का स्वाद बहुत दिनों बाद मिला.

सोचता हूँ कि आख़िर बेरोजगारी के दिनों में ही इतने चैन से क्यों जी पाता हूँ. नौकरी करते हुवे इस तरह जीता हूँ जैसे सब कुछ भागा जा रहा हो और मैं पीछे छूटने वाला हूँ. दारु को भी आजकल मुंह नहीं लगा रहा. ये घटना पिछले तीन दिनों की है. घर और बाहर कितनी शान्ति महसूस हो रही है. बिल्कुल सहज जीवन.

इन दिनों में मुझे आदमी को फिर से पहचानने की कोशिश करनी पड़ रही है. कितने स्वार्थी हो गए हैं रिश्ते. खाने-पीने तक तो साथ-साथ होते हैं लेकिन उसके बाद अगर कभी कोई दोस्त संकट में पड़ता है तो पीछे झांक कर नहीं देखते. मुझे लगने लगा है कि हम गावं वाले लोग दिल्ली में फिट नहीं हैं. या तो दिल्ली के हिसाब से स्वार्थी और कपट भरा जीवन जीना होगा या फिर दिल्ली छोड़ना होगा. खैर, मैं अभी दिल्ली नहीं छोड़ रहा और कपट भरा जीवन भी नही जीने जा रहा. लेकिन रहिमन दुःख हो भला जो थोड़े दिन होए. वाकई, मैं अभी नादान टाईप आदमी हूँ. थोडी दुनियादारी सीखने में लगा हूँ.

जीवन में कभी किसी का बुरा नहीं सोचा. भला ही करता रहा. शायद इसी का नतीजा है की मैं अपने जीवन में कभी हारा नहीं, आगे ही बढ़ता रहा. जीतता रहा. हमेशा ऐसे लोगों ने बांह थाम कर पार लगाया जिनसे कभी कोई उम्मीद नहीं रखी थी. जिनसे उम्मीद रखी थी वे सब एन मौके पे स्वार्थी निकले. इस बार भी ऐसा ही हो रहा है.

जल्द ही एक बार फिर नयी नौकरी की शुरुवात करने वाला हूँ. नई जगह, नया काम और नए तेवर के साथ. इसके साथ ही जीने के नए ढंग को आत्मसात कर रहा हूँ. क्योंकि अब तो हर शख्स कहने लगा है.....भाई सुधर जावो. मुझे समझ में आ रहा है, कितना और कहाँ बिगड़ा हुवा हूँ. ठीक है दोस्तों, अब मैं वाकई सुधर के दिखाता हूँ.

मेरे एक मित्र का फोन आया, यशवंत जी, आपके लिखे में एग्रेसन नहीं दिख रहा है अब? सवाल लाजिमी है, लेकिन भई, एग्रेसन का ठेका यशवंत जी ने ही तो नहीं ले रखा है. कुछ तुम भी तो कह के, कर के दिखावो.

मैं शायद कुछ ज्यादा ही भावुक किस्म का इंसान हूँ जो लोगों पे तुरत फुरत विश्वास कर लेता है, सबका भला चाहता है, जो बुरा है उसको तुरंत बोल देता है लेकिन दुनिया तो ऐसी नहीं है. लोग अपनी कुछ हजार कि नौकरियों के लिए किस तरह रीढ़ को घुमा घुमा कर नाचते हैं, वो मैंने देखा है. शायद वो सब कभी मंज़ूर नहीं किया इसलिए लोगों की आंखों में खटकता हूँ. पर मेरा विश्वास है कि दुनिया सरल और सहज लोगों की है और इमानदार लोग इतने ज्यादा हैं कि ख़राब माहौल से परेशान होने की ज़रूरत नहीं है. खैर, मैंने अपनी भड़ास निकाल ली. काफ़ी हल्का महसूस कर रहा हूँ. आप सभी प्यारे साथियों और भाईयों का शुक्रिया जो अब भी मेरे साथ खड़े हैं.

अंत में एक ग़ज़ल की कुछ लाईनों के साथ अपनी बात ख़त्म करता हूँ....

किस्मत का नाम तो सब जानते हैं लेकिन
किस्मत में क्या लिखा है, अल्लाह जानता है.
बन्दे के दिल में क्या है, अल्लाह जानता है...
ये सुबहो शाम देखो ये धूप छाँव देखो
ये कैसे हो रहा है, अल्लाह जानता है....

एक और....
मैं सच के साथ शाम तक खड़ा रह गया
झूठ एक एक कर बिक गया बाज़ार से.....

यशवंत

10 comments:

Anonymous said...

दिनेश श्रीनेत से भड़ास के बारे में जानकारी मिली थी। उसके बाद तो आदत ही बन गई थी। फिर भड़ास के आने की खबर से बहुत खुशी हुई।
राजशेखर

ALOK PURANIK said...

इसी हरामी शहर में मैंने भी आपकी तरह की जिदगी गुजारी है बरसों।
सब चू........ समझते थे।
उन सारे तजुर्बों का निचोड़ प्यारे पंचतंत्र की कहानियों में हैं, जो आपके ही अखबार में छपी थीं। दोबारा पढ़ जाइए, और चू... बनाइए, बनिये मत।

अनिल रघुराज said...

किस्मत का नाम तो सब जानते हैं लेकिन
किस्मत में क्या लिखा है, अल्लाह जानता है।
अब अल्लाह और किस्मत का रोनाधोना। क्या बात है...जब मार पड़ी शमशीरन की तो महाराज मैं नाई हूं!!!

RC Mishra said...

समय बदलता है, उसके साथ और भी बहुत कुछ बदल जाता है। इन्सान को पता भी नही चलता कि वो भी बदल रहा है। शायद इसी को जीवन का अनुभव कहते हैं।

बोधिसत्व said...

हिम्मते मर्दां....मददे खुदा को भी याद रखें भाई

Anita kumar said...

आप की भड़ास लाजिमी है, अच्छा है आप ने यहाँ जाहिर कर दी, देखिए कितनी बड़िया सलाहें बटोर ली आपने। सच है आज के जमाने में सीधे सरल इंसान को लोग बेवकूफ़ समझ्ते हैं , सो बद्लिए अपने आप को पर इतना नही कि घर वाले भी पूछें तू कौन

ravi said...

thik hi kaha apne. darasal jise dost mano wo matlb ke yaar hote hain, jise na mano wo kaam ka nikalta hai. mera bhi tazurba kuch aisa hi hai dost. lekin tamanna aisi ki ujle din phir se aayenge.

Ashish Maharishi said...

यशवंत जी मैं क्या कहूँ? मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा है

Anonymous said...

yashvant bhaiya
maine blog ki duniya me apko prerna mankar is kathit harami duniya me kadam rakha,jaisa ki puranik sahab ne kaha hai.apke sath jo bhi hua vah bhale hi pahar jaisa virat ho lekin apke hausle aur buland irade un badhaon ko par kar sahity srizan ki nai dastan rachenge.
bhaiya,'aksharjivi blog writer association'begusarai apke sath hai.

विनीत उत्पल said...

yasvantjee, apki manodasa aur isthti se avgat hu. dusre din alok puranik sar se apke bare me bat bhee hui.
kuch apkee tharah manodasa se main bhee gujar raha hun. Hindustan kee naukri se muh mor liya. NCR desk fir faridabad me reporting kar raha tha. kuch sathiyon aur seniors ko mere pragati dekhee nahee ja rahee the.
unkee atma kee santee ke liye filhal delhi se bahar rah raha hun.