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13.11.07

भेज रहा हूं न्योता, भड़ासी बनिए....मतलब जोर से कहो, खुल के कहो...जय भड़ास

लीजिए, उसी तेवर और उसी दमखम के साथ फिर आ गया भड़ास। मीडिया वालों की खबर देने और खबर लेने। लेकिन यह काम तो तभी होगा ना जब फिर भड़ासियों की फौज तैयार हो। तो, एक बार फिर भेज रहा हूं न्योता। नेह निमंत्रण नहीं न्योता। नेह निमंत्रण का दौर गुजर गया है। अब साफ-साफ न्योता देने का दिन आ चुका है। पिछले अनुभवों से सबक लेकर अबकी जो भड़ास आपके सामने हाजिर किया जा रहा है वो दरअसल ज्यादा मेच्योर और ज्यादा सहज है। हालांकि मेच्योरिटी और सहजता में आपस में उलटा वाला रिश्ता होता है लेकिन इस बार वाकई हम सभी भड़ासी एक नई क्रांति की बुनियाद रखने वाले हैं, वो है सूचना और जानने की क्रांति का अधिकार। हर रोज मीडिया में इतनी सारी चीजें हो रही हैं कि उन्हें बताने वाला कोई नहीं है। अफवाहों से सही खबरें कम, झूठी खबरें ज्यादा मालूम होती हैं। तकनालजी में रोज नई चीज आ रही है। जिन्हें ये सारी जानकारी पता है वो तो भौचक्क है और सोच रहा है कि बाप रे, इतना सारा बदलाव, इतने फटाफट तरीके से। जिन्हें नहीं पता है वो भी भौचक, मुंह बाये, कुछ इस अंदाज में भाव दिखाते हुए....हें हें हें भाई...हमका तो कुछउ नाहीं मालूम....ऐही खातिर भौचक्क बानी...। तो भई, अगर आगे जाना है, रेस में बढ़ते जाना है, करियर और प्रोफेशन की बुलंदी छूना है तो थोड़ा आरगेनाइज, थोड़ा इनफारमेटिव, थोड़ा प्रोफेशनल और थोड़ा अराजक....होना पड़ेगा। अराजक इस नाते कि जब तक आप थोड़ा अराजक नहीं होते, अपने व्यक्तित्तव में छिपी नई चीजों को तलाश नहीं पाते। अब मझको ही देखिए ना.....पत्रकारिता से बिजनेस तक की यात्रा इसी अराजकता ने ही करा दी। लेकिन सलाह यही है, बड़े भाई या दोस्त की तरह.....दुस्साहस करिए लेकिन प्लांड तरीके से। मुझसे जो चीजें हुईं उसमें प्लांड कम था, स्पानटोनियस ज्यादा था। इसलिए थोड़ी दिक्कत भी झेलनी पड़ी। खासकर मानसिकत ज्यादा।
तो चलिए फटाफट भड़ास का मेंबर बनिए, और भड़ास के फिर से री-लांच और पुर्नजन्म का स्वागत करिए और अबकी बार इस वादे और नारे के साथ कि चलते जाना है, बढ़ते जाना है, मंजिल पाना है......। मेरा एक छोटा सा ख्वाब है...जो पिछले भड़ास के दौर में भी था....काश....हम प्रिंट पत्रकारिता और गैर-पत्रकारिता श्रेणी में 10 तरह के पुरस्कार शुरू कर पाते। और, दोस्तों, आपको सचमुच आश्चर्य होगा कि यह ख्वाब अगले वर्ष के शुरू में सच होने जा रहा है। जो भी भड़ास का मेंबर होगा वो इस पुरस्कार के लिए मान्य होगा। और हां, मेंबर बनने के साथ आप अपना फोन नंबर मुझे निजी तौर पर मेल करिएगा ताकि आपको प्रोफेशन से जुड़ी कुछ जरूरी सूचनाओं को एसएमएस के जरिए भेजा जा सके। यह एक नई सेवा है जिसका ट्रायल चल रहा है। पुरस्कार और नई सेवा के बारे में बाद में बतायेंगे। फिलहाल आज इतना ही कि अगले दो महीनों में भड़ास के सदस्यों की संख्या दस हजार करनी है ताकि भड़ास विरोधियों को अबकी करारा जवाब दिया जा सके। मैंने लैपटाप ले लिया है, मैंने जो नई कंपनी ज्वाइन की है उसने खुद भड़ास को चलाने और इसे आगे बढ़ाने का वादा किया है। है न मजेदार खबर......तो फिर जोर से बोलो, खुल के बोलो....जय भड़ास।
भड़ास के सभी पुराने साथियों से आह्वान है कि वो भड़ास से फिर जुड़ें और इस सकारात्मक और सर्वहिताय आंदोलन का आगे बढ़ाएं। खासकर स्वामी विकास मिश्र से अनुरोध है कि वो नाराजगी छोड़कर फिर एक बार मैदान में आ जाएं।
जय भड़ास
यशवंत सिंह

6 comments:

Ashish Maharishi said...

जय भड़ास

बसंत आर्य said...

पुरस्कार शुरू कर रहे है ये सराहनीय है. लगे रहो

आलोक said...

यशवंत जी,
मैं भड़ासी बनना चाहता हूँ। आपने यह तो लिखा ही नहीं कि भड़ासी बनने के लिए करना क्या होगा? या यह न्यौता केवल आपसे पहले जान पहचान रखने वालों के लिए ही है? मैं मीडिया से जुड़ा नहीं हूँ, उपभोक्ता के तौर पर खबर लूँगा ही, दूँगा नहीं।
आलोक

Sanjeet Tripathi said...

बहुत खूब!!
शुभकामनाएं बंधु!

subhash Bhadauria said...

ये ग़ज़ल मैं अपने तमाम भड़ास के दोस्तों को पूरे एहतिराम के साथ नज़र कर रहा हूँ और गुज़ारिश करता हूँ कि उनका बयान ज़ारी रहे.उनके कलाम में गीता और कुरान की पाकीज़गी हैं जो मैने अक्सर महसूस की है.सतही तौर पर उनमें भाषाई नुक्श भले हों.अंदरूनी जज़्बात बड़े गहरे हैं जिन्हें मैं तस्लीम करता हूँ.
बकौले मीर तकी मीर
सारे आलम पर हूँ मैं छाया हुआ.
मुस्तनद है मेरा फ़र्माया हुआ.
डॉ.सुभाष भदौरिया.ता.13-11-07 समय-1-00PM
ग़ज़ल भड़ास के नाम

तुम क्या गये की नेट की दौलत चली गयी.
ऐसा लगा कि अपनी मुहब्बत चली गयी .

है कीर्तन का दौर ये देखो तो दोस्त अब.
गाली में जो हयात थी उल्फ़त चली गयी.

गूँगों में एक तेरी ही आवाज़ थी भड़ास,
सच कहने की तो लोगों में शिद्दत चली गयी.

हम अपने ही ग़मों से परेशान थे बहुत,
जाने जो तेरे ग़म तो मसर्रत चली गयी.

हम आज भी हैं तेरे तलबगार जानेमन,
तेरी ये कब कहा कि ज़रूरत चली गयी.

Reyaz-ul-haque said...

लीजिए हम भी बन गये. आपका स्वागत है. अब मत जाइएगा.