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30.12.07

काहे को जलाते हो...

भूपेन दा का गाया हुआ....बड़ा प्यारा...

ज़िंदगी के आग में काहे को जलाते हो, कागजी शरीर का चोला
भूख मिटा दे प्यास हटाय दे, खाली है पेट का झोला
हइया ना हइया ना हइया ना हइया....

गोल है मोल है रास्तों के पहिये
गिरे ना शरीर का डोला हो डोला
कल से बोखार है सर पे सवार है
सूरज आग का गोला, गोला....
हइया ना..हइया ना..हइया ना..हइया...

आंखें हैं काजल है जुल्फों के बादल है
लगते हैं दिन रात भाव
बाजारें जिस्म की कितने किस्म की
आओ खरीदार आव
भूखी ये फसलें आदमी की नस्लें
मौला ओ मौला ओ मौला
ज़िंदगी की आग से मुक्ति दिलाये दे
मांगें भिखारियों का टोला
भूखे भिखारियों का टोला
मांगें भिखारियों का टोला हो टोला

जि़ंदगी की आग में....

(कहीं कोई गलती हुई हो तो माफी....पुरानी डायरी से उतारा है....)

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