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28.12.07

अपने प्रिय कवि की कुछ लाइनें....

((जो किसी कवि का फैन हो जाता है तो वो उनकी लाइनें अपनी डायरी पर उतार लेता है। पुरानी डायरी में कई पन्ने मेरे प्रिय कवि वीरेन डंगवाल की कविताओं और शब्दों से संबद्ध हैं....। लीजिए हू ब हू वे लाइनें...उसी क्रम के साथ.....यशवंत))
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वीरेन डंगवाल

1- इन्हीं सड़कों से चलकर
आते रहे हैं आततायी
इन्हीं पर चलकर आयेंगे
एक दिन
हमारे भी जन



2- एक कवि और कर ही क्या सकता है
सही बने रहने की कोशिश के सिवा

3- दारोगा जी निकल गये बगल से
धड़धड़ाते अपनी बुलेट पर
दूर तक दिखाई देती रही ड्राइवर की सीध में
उनकी तनी हुई पीठ पर आसीन सत्ता

4- मुझ पर संदेह मत करो गौरैया
लो, मैं खिड़की खोलता हूं
जाओ, बाहर उड़ जाओ
धूप में अपने बदन को फुलाओ
और मटमैली ऊन का गुच्छा बनाओ

5- उसके गले की झालर जब हो जायेगी इतनी लुतलुती
कि मुट्ठी में आ जाय
तब वह भी याद करेगी शायद अपने बछड़ेपन को
अपने कोयेदार आंखों के आंसुओं पर बैठी
मक्खियों को उड़ाने के लिए
अपनी भारी सर डोलाती हुई
हल्के हल्के

6- दरअसल कितनी भी बड़ी हो तोप
एक दिन तो होना ही है उसका मुंह बंद

7- हजारों जुल्म से सताये मेरे लोगों
मैं तुम्हारी बददुआ हूं
सघन अंधेरे में तनिक दूर पर झिलमिलाती
तुम्हारी लालसा।

8- ये आदमी भी एक खुर्राट चीज है प्रधानमंत्री
पानी की तरह साफ, शफ्फाफ, निर्मल और तरल।

9- मुझे देखते ही विलापने लगते हैं चीड़ के पेड़
सुनायी देने लगती है किसी घायल लड़की की
दबी दबी कराह।

10- फिर वहीं लौट जाती है नदी
एक छिनार सकुचाहट के साथ
अपने सम्वैधानिक किनारों में
और मधुर मधुर बहने लगती है
जैसे लाठीचार्ज पर झूठमूठ शर्मिंदा
और गोलीकांड को एक सही मजबूरी
साबित करने की कोशिश करती हुई।

11- ((कमीज))
बरबाद लोग
समूची ज़िंदगी
तुम्हीं को घिसते, रगड़ते
और लोहा करते रहते हैं।

12- तुम बहुत शैतान हो मेरे बच्चे,
मैं तुम्हें बहुत पीटूंगा
अच्छा, यह बताओ
क्या तुम मेरी फैली हुई हथेली की गर्मी
महसूस कर सकते हो?
अभी तो तुम्हारे और मेरी हथेली के बीच
तुम्हारी मां का पुलकता हुआ शरीर
और हमारी शंकाएं हैं।

13- हम नहीं होंगे
लेकिन ऐसे ही तो
अनुपस्थित लोग
जा पहुंचते हैं भविष्य तक


14- ((भाप इंजन))
बहुत दिनों में दीखे भाई
कहां गये थे? पेराम्बूर?
शनै: होती जाती है अब जीवन से दूर
आशिक जैसी विकट उसासें वह सीटी भरपूर

15- हद है
न सुनाई पड़ना भी
साबित करे
पहुंच जाना

16- एक व्यक्तिगत उदासी
दो चप्पलों की घिस-घिस
तीन कुत्तों का भौंकना
ऐसे ही बीत गयी
यही भी, पूरा दिन
क्या ही अच्छा हो अगर
ताला खोलते ही दीखें
चार-पांच खत
कमरे के अंधेरे को दीप्त करते।

17- एक गरीब छापेखाने में छपी किताब था जीवन
ताकत के इलाज इतने
कि बन गये थे रोग

18-


((डायरी के पन्ने बताते हैं कि 09 सितंबर 1996 को लिखी गई कविता डायरी के अगले तीन पन्ने में लिखी गई लेकिन क्रम संख्या 18 का नंबर डालकर खाली छोड़ दिया गया.....और आज उपरोक्त कविताएं पढ़कर जी करता है अपने प्रिय कवि को चूम लेने को....यशवंत))

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