Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

30.12.07

व्यवस्था

((पुरानी डायरी के पन्नों पर दर्ज यह कविता वर्ष 1991 में मतलब 16 साल पहले, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाई के दौरान लिखी थी। इस कविता से टपकते आदर्शवाद को पढ़कर मैं खुद दंग हूं....यशवंत))


व्यवस्था

बचपन का निस्वार्थ जीवन
कल्पनाओं का बचपन
अब नहीं है।

मैं अब
जिम्मेदार लड़का हूं
वयस्क हूं

पिताजी कहते हैं
मुझे कुछ सोचना चाहिए
अपने बारे में
अपने परिवार के बारे में
पड़ोसी की चमक-दमक
हमारे पास भी होनी चाहिए

परिवार के संभावनाओं को
साकार करने के लिए
मैं इलाहाबाद में हूं
अध्ययनरत हूं

मेरे परिवार को संभावना है
मेरे कुछ होने की

कहीं पर हो जाऊं
जी-तोड़ कमाऊं
सात पुश्तों के लिए
जीवन जीना आसां कर दूं
यह दुनियादारी है

मेरे माता पिता भाई बहन
सब मुझसे प्रेम करते हैं
मुझ पर जान न्योछावर करते हैं
क्योंकि मैं लायक हूं
मैं तेज तर्रार हूं...

मैं तेज तर्रार हूं
इसलिए मैं देखता हूं
सोतता हूं

अब तक मैं शोषण के विरुद्ध हूं
लेकिन तब क्या मैं शोषण नहीं करूंगा
नहीं करूंगा अत्याचार
पीकर खून गरीबों का
करूंगा घरवालों का उपकार

खून से सीचे हुए फसलों का
मैं अपहरण नहीं करूंगा
मैं बलात्कार नहीं करूंगा
मजबूरी में जीती हुई लड़कियों का

क्या मैं भी तब निर्मम
पाशविक नहीं हो जाऊंगा
भावना को बौद्धिकता से रंगकर
अपने को धूर्त मक्कार बनाकर
मैं भी लुटेरों की भीड़ में
शामिल नहीं हो जाऊंगा...
क्या गरीबों के खून से मैं अट्टालिका
नहीं बनाऊंगा
क्या गरीबों के पसीनों से कार
नहीं चलाऊंगा

मुझसे ये तमाम प्रश्न
अक्सर मुंह फैलाये
मेरे मुंह पर रेंगते रहते हैं

आदमी कितनी जल्दी बदलता है
विचारों का क्रम
आदर्शों का क्रम
बचपन से टूटना शुरू होते हैं
और
यौवनावस्था तक तोड़ दिए जाते हैं

भावना की जगह बौद्धिकता
खून की जगह पानी
प्रेम की जगह घृणा
भरकर के
जाति धर्म क्षेत्र संप्रदाय
के भेद खड़ा करके
शोषक अपना कार्य करते हैं
मैं किसे दोष दूं? अपने को-
परिवार को, समाज को
या फिर व्यवस्था को?

हां व्यवस्था को
अनाचार का नंगा खेल
भ्रष्टाचार से भरा खेल
खेलने के लिए
खिलाड़ी तैयार किए जाते हैं

बहुत बिरले होते हैं जो
पूंजीवादी मृगमरीचिका से निकलकर
जीवन समय का भेद समझकर
समानता व समा की नींव पर
अपने आदर्शों को मजबूत कर
तलवार के सामने
अपना सिर उठाकर
लुटेरों का विरोध करते हैं।

मुझे अपने पूंजी से बंधे
अपने संभावनाओं से बंधे
परिवार समाज की जरूरत नहीं।

मुझे तो उसका साथ चाहिए
जो ठंढक में अपनी सांस
खले आकाश के नीचे
फुटपाथ पर गिन रहा है
खून बहाने वाले ठेले खोंमचे वाले....दलितों मजदूरों का
रिक्शा चलाने वाले अनुज का
बर्तन मांगने वाली बहन का
भीख मांगने वाले पिता का
साथ चाहिए।

मैं लुटेरों का खिलाड़ी नहीं बनूंगा
मैं तो गरीबों का
दलितों का
सर्वहारा का
सहारा बनूंगा
लाल बनूंगा।
--यश

(यश नाम से लिखी गई इस कविता को आज लिखते-पढ़ते समय खुद को कामरेड यशवंत सिंह को लाल सलाम कहने से नहीं रोक पा रहा हूं। वो दिन आइसा और माले से जुड़ाव के दिन थे और विचारों व व्यक्तित्व के रूपांतरण के दिन थे। याद है जब उन दिनों एक सीनियर कवि मित्र को यह कविता सुनाई थी तो उन्होंने कहा था कि यह कविता है या भाषण। आज लगता है उन्होंने ठीक ही कहा था....यशवंत)

1 comment:

bhupendra singh sishir said...

wastav mein jiwan ki yahi sacchi hai. hum isse dur hone bhagne ki kosis karte hai, lekin hum jante hain ki yah sambhav nahi. is kavita ki sabhi panktiyan aapki vishal soch ko dikhati hain. yaswant sir lage rahiye