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7.1.08

हरिवंश जी पर लिखिये पर ध्यान रखिए....

सचिन, लुधियाना वाले और विशाल, कोलकाता वाले। दोनों मेरे अच्छे दोस्त। दोनों ने हरिवंश जी पर भड़ास में प्रकाशित और घनश्याम श्रीवास्तव द्वारा लिखित पोस्टों के बाद अपने संस्मरण लिखने को तैयार। अच्छा लगता है जब किसी पोस्ट पर त्वरित और लगातार प्रतिक्रियाएं मिलती रहें। पर हरिवंश जी को लेकर मैं थोड़ा पजेसिव हूं। इसके पीछे मेरे कुछ तर्क हैं जो मेरे ईमान और आत्मा से उपजे हैं। मैं साफ कर दूं, मैं इसलिए नहीं लिख रहा कि हरिवंश जी की आलोचना किसी द्वारा लिख दिए जाने से मुझे कोई दिक्कत होगी, या मैं भड़ास का मुख्य माडरेटर होने के नाते मैं ऐसा नहीं चाहता, बल्कि इसलिए कि मेरे जैसे देहाती को जर्नलिज्म के बियाबान जंगल में अगर दो चार लोगों से प्यार करने का मन होगा तो मैं आखिर किनका नाम लूंगा? सचिन और विशाल वो नाम बताएं, अपना नाम छोड़कर। इन दोनों का जवाब आने के पहले मैं कह दूं कि....

इस दौर में हर चीज नकारना, बुरा कहना और खारिज कर देना एक फैशन है, एक तरह से पैशन है। इस निगेटिविटी और रिजेक्टिज्म को तवज्जो भी खूब मिलती है। टीआरपी खूब मिलती है। तालियां या वाह वाह खूब मिलती है। उसके बाद फिर सब अपने अपने खोल में, अपने धंधे में।

किसी को खारिज करना बेहद आसान है। कोई मूर्ति तोड़ने में कोई मुश्किल नहीं है। लेकिन हम सब हैं कि खुद को एक न खारिज की जाने वाली चीज, न तोड़ी जाने वाली मूर्ति, न नकारे जाने वाला मनुष्य...बनाने को लेकर कितने सचेत हैं। कितने प्रयास करते हैं। हमें सहजता महसूस होती है किसी को पीट देने में, किसी को गरिया देने में, किसी को तोड़ देने में, किसी को औकात में ला देने में ......पर....कुछ सवाल हमें अपनी आत्मा से पूछ लेना चाहिए....


क्या हम इस वर्तमान दौर को केवल नकारात्मक लोगों से भरा हुआ पाते हैं? क्या इस नकारात्मकता में कहीं कोई सकारात्मकता के संकेत या रोशनी दिखते/दिखती हैं। अगर हां, तो हम भड़ासी तय कर लें कि अगर महीन में बीस बार लोगों को गरियाने और खारिज कर देने की बौद्धिक बाजीगरी में वक्त गुजारेंगे तो दस पोस्ट लोगों की शिनाख्त करने, उनकी अच्छाइयों को सामने लाने और उनको जीते जी वो सम्मान देने के लिए इस्तेमाल करेंगे जो आमतौर पर भारत में मरने के बाद दी जाती है।

अब एसपी सिंह को ही ले लो। आज गूगल इमेज में एसपी सिंह लिखकर फोटो सर्च कर रहा था। सोचा, हिंदी मीडिया के पुरोधा एसपी की फोटो भड़ास पे होनी चाहिए। पर उनकी फोटो नहीं दिखी। सबकी दिखी। राजदीप की, देवांग की, अमिताभ की और जाने किस किस की। पर अपने साथी एसपी की फोटो नहीं दिखी। बाद में मैंने एसपी सिंह जर्नलिस्ट टाइप किया, फिर एसपी सिंह जर्नलिज्म टाइप किया, फिर एसपी सिंह आज तक टाइप किया .....लेकिन मजाल जो उनकी फोटो दिख जाये। ये शर्म की बात है हम हिंदी पत्रकारों के लिए कि जिसने हम लोगों को इतना कुछ दिया, पत्रकारिता करने और उसे जीने, हिंदी को समझने और उसे स्थापित करने, काम करने और कराने....उसे हम लोगों ने क्या दिया। शर्म आती है हिंदी मीडिया के धुरंधरों पर जो सिर्फ लंबी लंबी तनख्वाह उठाने के लिए दिन रात हगते मूतते खाते गाते बजाते पढ़ाते और फिर यही काम रिपीट करते रहते हैं। सोचना चाहिए उन लोगों के बारे में भी जिन्होंने हम सब को इतना कुछ दिया और लेकिन उनको हमने क्या दिया?


तो भई, सचिन और विशाल....अगर हरिवंश जी हमारे दौर के उन सहृदय, सहज, देसज, आत्मीय संपादक के साथ बेहद प्रोफेशनल और बेहद माडर्न जर्नलिस्ट भी हैं जो कि उतना ही जरूरी है जितना हमारा आपका अस्तित्तव, तो इसमें बुराई क्या है?

माफ करना, मैं किसी को कुछ रोक नहीं रहा, टोक नहीं रहा। ये ब्लाग आपका है। लेकिन लिखते समय हमेशा बड़े फलक को ध्यान में रखिए। और मनुष्योचित व नितांत अउल्लेखनीय प्रसंगों के आधार पर किसी व्यक्तित्तव के मूल्यांकन की कोशिश न की जाए।

मैं अपने बारे में साफ कर दूं। मैंने हरिवंश जी के साथ न कभी काम किया है, और अब मेरी जो सोच है व दिशा है, उसमें काम करने की कोई आएगी भी नहीं। बावजूद इसके जब मेरे मन में सवाल आता है कि आज के दौर में सबसे सहृदय, सहज व हमारे आपके बिलकुल आसपास के साथी के रूप में बड़ा संपादक कौन है जिसने हिंदी जर्नलिज्म को ढेर सारे देसी व विजन वाले पत्रकार दिए हों, वर्क कल्चर दिया हो और तमीज दी हो, तो दुर्भाग्य से दो तीन ही नाम आते हैं....वीरेन डंगवाल, हरिवंश जी.....आदि आदि। इस लिस्ट को आगे बढ़ाना है।

कुछ लोग तो हमारे इर्द गिर्द रहें ताकि जिनका नाम लेकर, जिनके बारे में सोचकर दिल को अच्छा लगा। वरना क्या आत्महत्या वाले हालात व लोग आपके इर्द गिर्द तैनात नहीं हैं?

कृपया मेरी बातों को एक साधारण भड़ासी की बात के रूप में ही लें।

अगर लिखने में कोई त्रुटि या अतिरेक दिखे तो एक आम भड़ासी की नादानी समझ के माफ करें।

जय भड़ास
यशवंत

1 comment:

chand shabdo ne kaha said...

sir aapne bilkul sahi likha. patrkarita ke alakh ko jalaye rakhane me harivans ji ka koi jawab nahi hai. akhir unke jaisa kad ab dekhane ko kaha milta hai. unka hona hi hume nayi disa dene ke liye kafi hai. mai aisa tab bol raha hu jub ki mai indore me hu or mujhe kabhi unse milane ke sovagya nahi mila.