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16.1.08

बचपन

कल मैंने देखा
बारह चौदह बरस की
एक लड़की को
The holy child
next to god

मासूम ख्वाहिशों की सी शकल
दुनियावी बातों से लगभग अनजान
एक अबोध सूरत कितना सुकून देती है
मक्कार मन को

मैं देखता हूँ उसे
और सोचता हूँ
कि आज से दस साल बाद
इस लड़की के भीतर
किस हद तक बचा होगा इसका आज

समझदार लोगों की
ये दुनिया कर देगी
इसे भी दुनियादारी में पारंगत?
ताकि ये हो सके सफल और व्यवहारिक

जिसे लोग सफलता कहते हैं
उसे पाने की कोशिश में
धीरे-धीरे नष्ट हो जायेगी
इसके भीतर की सुन्दरतम चीज
और इसे पता भी नही चलेगा कि इसने क्या कुछ खो दिया है

हमारी देह का
ये कैसा रिश्ता है सफलता से
कि सफल होने के लिए

सबसे पहले दांव पर लगानी होती है
अपनी आत्मा ,
फिर अपनी मानवता
और उसके बाद जो भी कुछ अच्छा बचा है हमारे पास वो सब भी

इतना सब होने के बाद भी
जब कभी बात आयेगी विश्वास की
हम सबसे पहले कसमें खाएँगे
अपने बच्चों की

ताकी सामने वाला शख्स
भरोसा कर सके हमारी बात का

क्योंकि बच्चे भगवान् का रुप होते हैं............

1 comment:

हरिमोहन सिंह said...

बची है भावनाये जिसमें
वो कुटिल ढूढ लेता है मासूम बच्‍चों में जीने की वजह