Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

25.1.08

हरामी बोलती लड़कियां, अच्छी लगती है

जरा बच के, मां-बहन भी पढ़तीं हैं ब्लॉग पढ़कर मेरे एक साथी डॉ. रुपेश श्रीवास्तव ने तुरंत पोस्ट डाला कि आप राय-सलाह मत दिया करें और फिर भड़ास यानि दिमागी उल्टी का वैज्ञानिक विश्लेषण किया-उल्टी करने वाले पर आप शर्त नहीं लगा सकते कि उसमें दुर्गंध न हो । एक चिकित्सक होने के नाते बता देना चाहूंगा अन्यथा न लें ,माता जी और बहन जी को भी कहें कि अगर किसी को गरियाना चाहती हों तो भड़ास पर आकर गरिया लें मन हल्का हो जाने से तमाम मनोशारीरिक व्याधियों से बचाव हो जाता है ;ध्यान दीजिए कि यह भी एक विचार रेचन का अभ्यास है ,"कैथार्सिस" जैसा ही या फिर ’हास्य योग’
लेकिन मेरी बात को उन्होंने सुझाव या ज्ञान समझ लिया जबकि था ये व्यंग्य। मैं उनसे ज्यादा बड़ा कमिटेड भड़ासी हूं, ये बताने के लिए पोस्ट पेश कर रहा हूं
हिन्दी में जब एक कवि ने लिखा -
स्त्री के निचले हिस्से में
फूलबगान

बाकी सब जगह श्मशान
तो उस समय के आलोचकों ने उन्हें खूब गरिआया, लात-जूते मारे और बाद तक गरियाने के लिए अपने मठों के आलोचक के नाम पर लूम्पेन छोड़ गए। अभी भी ऐसे लूम्पेन उनकी कविता या उन जैसे कवियों की कविता पर नाक-भौं सिकोड़ते नजर आ जाएंगे. लेकिन दो साल पहले मेरे एक सीनियर ने बड़ी हिम्मत करके इन पर रिसर्च किया और बाद में जब किताब लिखी तो पहली ही लाइन लिखी कि- राजकमल चौधरी जीनियस कवि हैं। दमदमी माई ( अपने हिन्दू कॉलेज की देवी जो वेलेंटाइन डे के दिन प्रकट होती है और उस दिन प्रसाद में लहसुन और कंडोम बांटे जाते हैं) की कृपा से किरोड़ीमल कॉलेज में पक्की नौकरी बतौर लेक्चरर लग गए। किताब के लोकार्पण के समय उन्होंने कहा भी कि जब वो काम कर रहे थे तो लोग उनके कैरेक्टर को लेकर सवाल किए जा रहे थे मानो इस कवि पर काम करने लिए भ्रष्ट होना जरुरी है, एक-दो ने तो पूछा भी था कि कभी जाते-वाते हो कि
लेकिन इधर देख रहा हूं कि ऐसी भाषा लिखनेवालों की संख्या और रिडर्स की मांग बढ़ रही है। राही मासूम रजा ने तो पहले ही कह दिया कि अगर मेरे चरित्र गाली बोलेगे, बकेंगे तो मैं गाली लिखूंगा और देखिए बड़े आराम से हरामी शब्द लिखते हैं।तो क्या मान लें कि अब भाषा के स्तर पर समाज भ्रष्ट होता जा रहा है. अगर मुझे ऐसा लिखने के लिए, दंगा करवाने के लिए कोई पार्टी या संगठन पैसे देती तो सोचता भी, फिलहाल अपने खर्चे पर वही लिखूंगा, जो तथ्यों के आधार पर तर्क बनते
पहली बात तो ये कि अगर हमने कहीं गाली लिख दिया या फिर पेल दिया तो लोग उसे सीधे हमारे चरित्र से जोड़कर देखने लग जाते हैं। अगर अच्छे शब्दों और संस्कृत को माई-बाप मानकर हिन्दी बोलने वाले लोगों से देश का भला होना होता तो पिर मंदिरों में कांड और महिलाओं के साथ बाबाओं की जबरदस्ती तो होती ही नहीं और अपने आइबीएन 7 वाले भाईजी लोग परेशानी से बच जाते। अगर ऐसा है तो हर रेपिस्ट की अलग भाषा होती होगी और संस्कृत बोलने वाला या फिर उसके नजदीक की हिन्दी बोलने वाला बंदा कभी रेप ही नहीं करता। इसलिए ये मान लेना कि ले ली की बजाय आस्वादन किया बोलने से समाज का पाप कमेगा, बेकार बात है और बॉस ने ड़ंड़ा कर दिया बोलने से हम भ्रष्ट हो गए, बहुत ही तंग नजरिया है।
ऐसा वे सोचते हैं जो सालों से वही पोथा लेकर बैठे रहे अपनी मठ बनाने में और अब बचाने में लगे रहे और जब भाषा उनके हाथ से छूटती चली गई तो शुद्धता के नाम पर हो-हल्ला मचा रहे हैं। ये भाषा के नाम पर अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहते हैं। कईयों की तो ऐसी हिन्दी सुनकर ही उनके कमीने होने की बू आने लगती
और जहां तक सवाल गालियों या फिर शब्दों के तथाकथित अश्लील होने की है तो ये हमारी दिमागी हालत पर निर्भर करता है। मेरी एक दोस्त अपने बॉस पर गुस्सा होने पर कहा करती है, मैं तो उसकी मां...... दूंगी, अब बताइए संभव है। कॉलेज की एक दोस्त जब हमलोग कहते मार्च ऑन तो वो पीछे से कहती वीसी की मां चो..। और कहती हल्का लगता है विनीत, ऐसा करने से।मेरे रुम पार्टनर ने मेरे न चाहने पर भी तीन महीने तक एक गेस्ट को रखा और मैं परेशान होता रहा। लेकिन जब भी वो मुझे दिखता मन ही मन धीरे से कहता- साला भोसड़ी के और तत्काल राहत मिलती। इसलिए अब भाषा पर जो काम हो रहे हैं और उससे जो काम लिया जा रहा है उसमें शब्दों के अर्थ लेने से ज्यादा जरुरी है उन शब्दों को लेकर मानसिक प्रभावों पर चर्चा करना, लोग गाली लिखने वालों के लिए भी जगह बना रहे हैं, दे रहे तो इसलिए कि वे उनका कमिटमेंट देख रहे हैं उनके लिखने से उनके व्यक्तित्व का विश्लेषण नहीं कर रहे और इस अर्थ में आज का समाज पहले से ज्यादा समझदार हुआ है और ज्यादा बेहतर व्यक्त कर रहा है।
जिस लड़की की आवाज को मठाधीशों ने जमाने से दबाए रखा, आज वो अपने बॉस को चूतिया, कमीना, रॉस्कल और हरामी बोलती है तो वाकई अच्छा लगता है, मैं तो इसे भाषा में एक नए ढ़ग का सौन्दर्यशास्त्र देखता हूं।इसलिए एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर काम करते-करते अपने बारे में ही कहता है कि मैं तो बड़ा ही चूतिया आदमी हूं और जब कोई मेरे बारे में कहता है कि बड़ा ही हरामी ब्लॉगर है तो न तो कोई अफसोस होता और न हीं कभी गुस्सा आता है बल्कि लगता है कि पब्लिक को मेरी इमानदारी पर शक नहीं है, मैं बेबाक लिख रहा हूं।

4 comments:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

मान्यवर ,क्षमा कर दीजिए ;दरअसल माता-बहन की बात निकाल ली तो इमोशनला गए थे जरा । अब हो सकता है कि आप जैसे लोगों का सत्संग मिले तो मां-बहन का जिक्र करके भी व्यंग किया जाए तो समझ पाऊंगा । अपन जरा संस्कार-वंस्कार वाली सोच की खाज से पीड़ित हैं इसलिए ऐसा लिख दिया था अब शायद सेंस डेवलप हो जाएगा ।

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

प्रभु,"स्त्री के निचले हिस्से में फूलबगान बाकी सब जगह श्मशान" आपकी दी हुई समझ से प्रेरित होकर मैंने आज अपनी स्तन-कैंसर से पीड़ित माता जी के रुटीन चैकअप में देखा कि स्त्री के शरीर में स्तन का भाग भी कुछ कम सुन्दर नहीं है फिर आपने उसे श्मशान में गिन कर अपने सौंदर्य बोध को ठिगना क्यों रखा है कुछ इस पर भी स्नेह पूर्वक अवश्य कहें ..............
जय भड़ास

विनीत कुमार said...

sirjii, yae kavita maine nahi likhi hai, so kya sudhaaru aur hum jaise chagde kya liyae kya saundarya, kya istri, kuch ho tab to kahu.

विनीत कुमार said...

sirjii, yae kavita maine nahi likhi hai, so kya sudhaaru aur hum jaise chagde kya liyae kya saundarya, kya istri, kuch ho tab to kahu.