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31.1.08

हरिद्वार की ठंडी, धर्म की सरगर्मी, डा. बुधकर और तोमर संग चाय की चुस्की

हरिद्वार की भयंकर ठंडी ने तो दिल्ली की सर्दी को पछाड़ दिया। उंगलियां कड़कडा के यूं ऐंठी हैं कि हिलने डुलने से मना कर रही हैं। इस शहर में आज दूसरा दिन है और दो दिनों में इतनी सारी बातें हुईं कि अगर सभी को बताने बैठूंगा तो जाने कितनी पोस्टें किलो किलो भर की लिखनी पड़ेंगी। संक्षेप में, कुछ बातें...

-इंटरनेट की आभाषी दुनिया के जरिये बने मित्रों से वास्तविक दुनिया में मिलन हुआ। डा. कमलकांत बुधकर और डा. अजीत तोमर, दोनों ही ब्लागर, से मिलना न सिर्फ यह भरोसा दिलाने वाला था कि कमीनों की इस दुनिया में अच्छे अभी बड़ी संख्या में हैं, और ये संख्या, इंशाअल्लाह, ब्लागिंग व ब्लागरों के चलते और ज्यादा बढ़ने वाली है।

-हरिद्वार में उतरने से पहले ही डा. अजीत तोमर का स्नेहिल आमंत्रण आ चुका था कि आप पहले मेरे यहां आएंगे, चाय पियेंगे, फिर जाना हो जाएंगे। मैं हरिद्वार में सिंहद्वार पर उतरा और थोड़ी ही देर में डा. अजीत हाजिर। उनकी बाइक पर उनके कमरे पहुंचा। दो दो पैग चाय के बाद बातों का जो सिलसिला शुरू हुआ तो फिर थमा नहीं और देखते देखते उनकी जि़द आ गई कि आज रात यहीं गुजारें। उनके साधिकार अनुरोध को टाल न पाया। बतियाते बतियाते कब नींद आ गई, पता न चला।

-सुबह सवेरे उठने की मेरी कोशिशें हमेशा बेकार होती हैं सो देर से उठा और फिर डा. कमलकांत बुधकर जी का आदेश पहुंचा कि यशवंत जी को लेकर मेरे घर आओ। हम दोनों डा. बुधकर जी के यहां पहुंचे। विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के रीडर डा. बुधकर न सिर्फ बेहद अच्छे इंसान बल्कि एक सच्चे दोस्त बन गए, थोड़ी ही देर की बातचीत के बाद। लगे हाथ उन्होंने भड़ास की मेंबरशिप ले ली और इंट्रोडक्टरी पोस्ट भी प्रेषित कर दी।

-धूप में चाय पीते हुए बुधकर जी को सुनना मजेदार अनुभव रहा। महाराष्ट्र के सतारा के बुध गांव के होने के नाते बुधकर पर जब बुध गांव पहुंचे तो वहां कोई अपने नाम में बुधकर नहीं लगाता, पता चला कि जो लोग अपने गांव से बाहर निकले उन्होंने ही अपने नाम में गांव के नाम के साथ कर जोड़ लिया....गावस्कर, बुधकर, मंजरेकर.....आदि आदि। डा. बुधकर जी ने ब्लागर मीटिंग का प्रस्ताव भी रखा, जिसे उन्होंने अपनी पोस्ट में भी लिखा है।

-डा. बुधकर से मिलना, उनको सुनना, उनके लिखे को पढ़ना....बेहद सुखद अनुभव है। अनुभवों की जो थाती, शब्दों का जो शिल्प, बयान करने का अंदाज़, व्यक्तित्व की सहजता...ये सब चीजें उन्हें कुल मिलाकर ऐसा बना देती हैं कि उनसे बार बार बतियाने गपियाने सुनने और जीने का मन करता है।

-डा. अजीत मुजफ्फरनगर के रहने वाले हैं और गुरुकुल कांगड़ी विवि में ही शोध किया और अब यहीं अध्यापन करने लगे हैं। उम्र तो ज्यादा नहीं है लेकिन संवेदना इतनी गहन की जैसे छोटी सी छोटी चीज उनकी निगाह से छूट नहीं पाती। इन चीजों को वे कविता के रूप में आकार देने की कोशिश करते हैं। उनके ब्लाग पर आप कविताएं ही पायेंगे। उनकी मेहमाननवाजी देखकर मैं सोचने लगा कि इस शख्स से पहले कभी मिला नहीं और पहली ही मुलाकात में इतना अपनापा। शायद एक समान सोच व संवेदना के लोग जब मिलते हैं तो लगता है कि जमाने से मिले हुए हैं, बिछ़ड़े ही कब थे।

-डा. अजीत के साथ हरिद्वार घूमने के बाद आज मैंने उन्हें विदा किया और फिर खुद घूमने निकला। हर की पैड़ी के साथ साथ आसपास के पूरे इलाके को घूमा। कुछ यूं दिखा सारा मंज़र...

हर जगह धर्म से जुड़ी दुकानें
कंठी, माला, कपड़े, शंख,
किताबें, प्रसाद, कैसेट,
पूजा का सामान, तस्वीरें
पंडे, लाइन से बैठे भिखारी,
गंगा में डुबकी लगाते श्रद्धालु,
पैसे लेकर ग्रुप फोटो खींचते फोटोग्राफर,
गंगा में डुबकी लगाकर पैसे बीनते लड़के,
रसीद काटकर पैसे मांगती महिलाएं,
गरीबों को भोजन खिलाने का
आह्वान करते ठेले वाले दुकानदार,
धार्मिक गीतों का शोर मचाकर सीडी
व कैसेट बेचते लौंडे,
पतली-पतली गलियां,
ताजी ताजी छनतीं पूड़ियां,
बड़े बड़े धर्मशाले, गेरुआ धारी साधु संत
और इन सबको अगल बगल बसाये
कल कल करतीं बहतीं पावन गंगा,
गंगा को चुनरी ओढ़ाये खड़े बड़े पहाड़
चुपचाप देखते निहारते सदियों से.....
सब कुछ धर्ममय और सबके पीछे पैसे का खेल
बस निष्पाप और निष्कलुष गंगा दिखीं
और पहाड़ दिखे, बाकी सब के मन में
थोड़ा थोड़ा खोट,
जैसे पैसे की जगह
मांग रहे हों रुपये रूपी वोट...
हरिद्वार की ठंडी को मात करती है
सिर्फ धर्म के धंधे की जोरदार गर्मी
लगता है जैसे मौसम सिर्फ धर्म
और भक्ति को बेचकर पैसे बनाने का है।


बातचीत करने पर पता चला कि स्थानीय लोग तो सिर्फ धर्म के नाम पर पैसे बनाकर जीवन चलाने में जुटे रहते हैं और बाहर के लोग सिर्फ धर्म को जीने और बूझने आते हैं।

मुझे जो दो चीजें अच्छी लगीं उनमें से एक था टेलीस्कोप जिससे दूर पहाड़ पर स्थित मंदिरों को साफ देखा जा सकता था, गंगा के बीच में बनी गंगा की प्रतिमा को साफ देखा जा सकता था और टी सीरिज वालों की तरफ से बनाई गई शंकर की विशालकाय मूर्ति की जटा में गंगा की शक्ल को देखा जा सकता था। पांच रुपये लिए सिर्फ ये चीजें दिखाने के लिए।

फिलहाल इतना ही
फिर मिलेंगे
जय भड़ास
यशवंत सिंह

3 comments:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

दादा,दोनो ऊर्जा पुंजो का अभिनन्दन है । स्वास्थ्य का ख्याल रखिएगा....

अजित वडनेरकर said...

मेरे मामाश्री से मिलकर सबको एक सा सुखद अनुभव ही होता है ।

अजित वडनेरकर said...

मेरे मामाश्री से मिलकर सभी को एक सा सुखद अनुभव होता है।