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6.2.08

झांको अपनी गिरेहबान में......

आज मेरा मन बेचैन था कि यार, ये क्या मेरे मुल्क को समस्याओं का घुन लगा पड़ा है कौन सा कीटनाशक डालूं कि सारे कीड़े मर जाएं और देश की बगिया में फिर से प्रगति के फूल खिलें और पूरे विश्व में सुगन्ध फैल जाए हमारे देश की । कभी लग रहा था कि बंदूक से सर्जरी करना उचित है कभी लग रहा था कि प्रेम का संदेश फैलाना चाहिए ताकि भाईचारा बढे लेकिन जब भाई ही भाई को चारा बना कर खाए जा रहा हो तो क्या प्रेम का संदेश लोगों की समझ में आएगा ? यही उधेड़-बुन में उलझा पेपर वेट घुमाता बैठा था कि मेरी नव-भड़ासिन मरीज़ा आयी अपना रक्तदाब में सुधार बताने ,उनके हाथ में उर्दू का एक दैनिक अख़बार था । अक्षर-अक्षर जोड़ कर मैं भी उर्दू पढ़ लेता हूं । वे अपना अख़बार मेरे पास ही छोड़ गयीं और बताया कि जबसे भड़ास से जुड़ाव हुआ है तो ऐसा लग रहा है कि मैं एक तितली हूं जो अब तक इल्ली की मानिंद ककून में बंद थी और अब आपकी सलाह से ककून फट गया है और लग रहा है कि नए पंखो को खूब फैला कर हर्फ़ दर हर्फ़,सफ़ा दर सफ़ा उड़ूं .......
मैने उस अख़बार में जो कविता देखी वह किन्ही आलोक भट्टाचार्य जी की लिखी है जो आज के माहौल में औषधीय प्रभाव दिखाती है जबकि हर ओर लोगों को बांटने का काम हमारे राजनेता करे जा रहे हैं । यह कविता हमें टुच्ची,ओछी और क्षुद्र सोच से ऊपर ले जा कर अपने गिरहबान में झांकने को बाध्य करती है । तर्जुमा करने में थोड़ा समय लग गया लेकिन लीजिए आप भी पढ़िए और चाहें तो आलोक भट्टाचार्य जी को खुद के भीतर झांकने की सलाह देने पर जी भर कर कोसिए या फिर सराहिए ;भाई ,हमें तो दिल को छूने वाली रचना लगी तो आप को भी बिना झेलवाए कैसे रह सकता हूं ,लीजिए झेल जाइए दिल मजबूत करके......
बर्बरियत की तारीख पर
सिर्फ़ उनका ही नहीं हमारा भी हक़ है
मंदिर तोड़ने का गुनाह सिर्फ़ उन्होंने ही नहीं हमें भी हासिल है
हमने भी तोड़े हैं मंदिर जैनियों के,बौद्धों के
और खड़े कर दिए हैं अपने राम-हनुमान
वो धर्म राज्य के कयाम के लिये जेहाद
सिर्फ़ उन्होंने ही नहीं हमने भी किये हैं
काफ़िरों की गर्दने काटने का सेहरा हमारे सिर भी बंधता है
हमारा ही था वो पोशीदा मित्र शुंग,ब्राह्मण राज के कयाम के लिये जिसने
हजारों बेगुनाह बौद्धों के लहू से काली मिट्टी को कर दिया था भगवा
इक्तेदार के लिए अपनों का खून बहाना सिर्फ़ उनकी ही नहीं
हमारी भी खासियत है
हमारे अशोक ने भी गद्दी हथियाने के लिये अपने ही
निन्यानबे भाइयों का कत्ल कर दिया था
तशद्दुद की म्याऊं बोलने से पहले उसने कितने चूहे हज़म किए
ये तारीख से पूछो
चार शादियों का ऐश सिर्फ़ उन्हीं को नसीब नहीं
हमारे भी श्री राम के पिता राजा दशरथ की थीं तीन बीवियां
और क्रष्ण की थीं सोलह हज़ार एक सौ आठ
और तो और हमारी द्रोपदी पांच शौहर रख लेती थी
पांचो हारे हुए जुआरी और ऐसे बहादुर कि
अजलास में नंगी होने से उसे बचा न पाए
उनका अहमद अगर सरला को भगा ले जाता है
तो उसे तहरीक मिली होगी
हमारे ही प्रथ्वीराज चौहान से जो संयोगिता को उठा ले गया था
करीम लाला और हाजी मस्तान और युसुफ़ पटेल
मिलकर जितनी नही कर पाए
उससे ज्यादा गुंडागर्दी कर गया
अकेला हमारा लाड़ला संजय गांधी
उनके गुंडे तो खेलते रहे छोटी-छोटी गलियों में,चौबारों में
इनके गुरगे विराजमान हो गए इक्तेदार के गलियारों में
देहली दरबारों में
दाउद इब्राहिम जितनी स्मगलिंग करने के बाद
मुल्क छोड़ने पर मजबूर हुआ
उससे कहीं बड़ा घोटाला घर बैठे कर गया
हमारा हर्षद मेहता
उनके अगर थे समदान खान,पीरज़ादा
तो हमारे भी हैं अमर नाइक,अरूण गवली और भाई ठाकुर
वो बाहर से आए समरकंद,बुखारा और काकेसस की पहाड़ियों से
कहते हैं ईरान से आए हैं हम
तभी तो आर्यन कहलाते हैं
जहां से भी आए हम
यहां हमने जिनके घरों पर कब्ज़ा जमाया
उन्हें बेघर करके खदेड़ दिया श्रीलंका,जावा,सुमात्रा,सूरीनाम
सच है कि हर ऐतबार से बड़े हैं हम
उनकी तारीख है सिर्फ़ चौदह सौ साल पुरानी
हमें हजारों सालों के सफ़हात काले करने का फ़ख्र हासिल है
सच है जितना फ़ख्र कर सकते हैं हम
उतना वह चाहे तो भले दुनिया भर में कर लें
यहां नहीं,यहां तो हम ही रहें ;
होंगे वे भी कभी अव्वल शहरी,इस मुल्क के तो आज दोयम हैं
लेकिन जो दोयम होता है ऐसा तो नहीं कि वह होता ही नहीं
वह भी होता है सो वह भी है
दोयम होने की तकलीफ़ उन्हे इसलिए झेलनी पड़ रही है
कि उन्होंने गद्दारी करी है
जिन्ना की सारी फौज़ जब उस तरफ दौड़ी
तब रह गए ये गद्दार इस ओर
इस तरफ मुल्क को तकसीम क्यों किया था
हमारे देशभक्त गांधी ने ,नेहरू ने,उनके जिन्ना ने
उन्होंने न गांधी को सुना न नेहरू को और न जिन्ना को सुना
गद्दारों ने इस तरह रहना चुना
उस गद्दारी की सजा वे झेल रहे हैं लातें खाकर जानें देकर
जाते नहीं उस तरफ कहते हैं कि इनकी चालीस पुश्तें दफन हैं
इस ज़मीन में,अब तो यही हमारी ज़मीन है
यहीं हमारी यादें है यही माजी यही दौरे हाजिर यही मुस्तकबिल
वेदों ने बारह सालों को एक युग कहा है
वे यहां हैं एक हज़ार सालों से,कितने कितने कितने युग?
यहीं पैदा हुए हैं यहीं मरे हैं
गुलाब सींचे हैं यहां ग़ज़ले कहीं
जितनी हमने सही उतनी उन्होंने भी सही
जितना हमने किया उन्होंने भी किया
हमने बनाए अगर अजंता ,एलोरा ,कोणार्क
तो उन्होंने भी बनाए ताज़ महल ,कुतुब मीनार ,चार मीनार
हमने दिये कालीदास ,बाणभट्ट ,रविन्द्रनाथ
तो उन्होंने दिये खुसरो ,ग़ालिब ,फ़िराक़
हमने दिये जयदेव ,कुमार गंधर्व ,भीमसेन जोशी ,हंसराज
तो उन्होंने भी दिये बड़े ग़ुलाम अली ,बिसमिल्ला खान ,डागर बिरादरांन
हमने दिये सहगल ,हेमंत ,मन्ना ,लता
तो उन्होंने दिये रफ़ी ,नूरजहां ,नौशाद
हमने दिये रविन्द्रनाथ ,नन्दलाल ,बसरोमी वर्मा ,अम्रता शेरगिल
तो उन्होंने दिये हुसैन ,आराह ,रज़ा
सच है कि साड़ियां हमारे बनारस की हैं
लेकिन तार बुने हैं उन्होंने
मुरादाबाद हमारे ही मुल्क का है
इसके बर्तन भी हमारे लेकिन उन पर निकाली नक्काशी
उन्हीं की उंगलियों का कमाल है
फ़िरोज़ाबाद की कांच की चूड़ियां हमारी मांओ-बहनों की कलाईयों में खनकती हैं
लेकिन बनती हैं उन्हीं की भट्टियों में
ग़ज़ल गाते होंगे हमारे जगजीत सिंह
ग़ज़ल आई उन्हीं के साथ अरब से ,फ़ारस से
और जहां तक मुल्क की आज़ादी की बात हो या शहादत की तो
हमारे पास तात्या ,लक्ष्मी ,मंगल पांडे ,गांधी ,नेहरू ,सुभाष ,भगत सिंह व
चन्द्रशेखर ,रामप्रसाद के साथ खड़े हैं उनके भी ज़फ़र ,टीपू ,बेग़म हज़रत महल ,
अबुल क़लाम ,अशफ़ाक ,अब्दुल हमीद
यह उनकी खूबी न सही चालाकी ही सही
क्या करोगे इसका कि हमारे खून में मिल गया है उनका लहू
हमारी हवा में घुल गयी है उनकी सांसे
और हमारी ज़मीन में धंस गयी हैं उनकी हड्डियां
हमारी मिट्टी के ढेले बन गये है उनके गोश्त के लोथड़े
उनकी दरगाह में पछाड़ें खातीं हैं हमारी मन्नतें
हमारी होलियों ,दीवालियों में शामिल रहतीं हैं
उनके भी बच्चों की किलकारियां
इसके बावजूद भी हो सकते हैं हम अलग ?
जैसे पांव से होता है पांव अलग.........

3 comments:

सचिन श्रीवास्तव said...

शानदार जवाब भी और जमींदोज होती नफरत का इर्तिका भी
बधाई डॉक्टर साहब
लेकिन फिर भी सवाल वही है
वे हैं तो दिक्कत क्या है
हां, वे मुसलमान हैं
ईमान ओ अम्न की जिंदा मिशाल हैं...

जारी रहे लेकिन ध्यान रखिए कोई महाराष्ट न रहे राज ठाकरे का

मुनव्वर सुल्ताना Munawwar Sultana منور سلطانہ said...

डाक्टर साहब आप कमाल हैं अगर पास में होते तो कम से कम आपको सिर पर हाथ रख कर आशीर्वाद जरूर देती इस प्यारी सी कविता के एवज़ में आखिर आ्पसे इतनी बड़ी जो हूं ।

pranava priyadarshee said...

डॉ साहब. सबसे पहले नमस्कार. आपको भड़ास के जरिये जाना और प्रभावित हुआ. भड़ास और यश्वंत्जी को धन्यवाद कि आप जैसे व्यक्ति से हमे मिलवाया. शराब माफिया के खिलाफ आपके अभियान के लिए अभिनन्दन. उनका हमला निंदनीय तो है ही, लेकिन अप जैसे लागों की हिम्मत को तोड़ने का सामर्थ्य ऐसे हमलों मे नही.
बहरहाल, राज ठाकरे के गुर्गों की नपुंसक कार्रवाई पर आपकी प्रतिक्रिया (आओ कमीनो मुझे मारो...) भी इसी भड़ास पर आपके पोस्ट मे देखी थी.
आपने आलोक भट्टाचार्य की कविता का उल्लेख किया है. कहने की ज़रूरत नही की यह उम्दा कविता बेहद प्रासंगिक भी है. इतना जरूर बताना चाहूंगा कि आलोक जी शानदार कवि तो हैं ही, मुम्बई के मंचों की जान रहे हैं, वरिष्ठ पत्रकार भी हैं और वहीं डोम्बीवली मे रह्ते हैं.
प्रणव