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7.2.08

राज ठाकरे की चिंतायें जायज हैं, तरीका गलत है…

“नीम का पत्ता कड़वा है, राज ठाकरे भड़वा है” (सपा की एक सभा में यह कहा गया और इसी के बाद यह सारा नाटक शुरु हुआ) यह नारा मीडिया को दिखाई नहीं दिया, लेकिन अमरसिंह को “मेंढक” कहना और अमिताभ पर शाब्दिक हमला दिखाई दे गया (मीडिया हमेशा इन दोनों शख्सों को हाथोंहाथ लेता रहा है)। अबू आजमी जैसे संदिग्ध चरित्र वाले व्यक्ति द्वारा “मराठी लोगों के खिलाफ़ जेहाद छेड़ा जायेगा, जरूरत पड़ी तो मुजफ़्फ़रपुर से बीस हजार लाठी वाले आदमी लाकर रातोंरात मराठी और यह समस्या खत्म कर दूँगा” एक सभा में दिया गया यह वक्तव्य भी मीडिया को नहीं दिखा। (इसी के जवाब में राज ठाकरे ने तलवार की भाषा की थी), लेकिन मीडिया को दिखाई दिया बड़े-बड़े अक्षरों में “अमिताभ के बंगले पर हमला…” जबकि हकीकत में उस रात अमिताभ के बंगले पर एक कुत्ता भी टांग ऊँची करने नहीं गया था। लेकिन बगैर किसी जिम्मेदारी के बात का बतंगड़ बनाना मीडिया का शगल हो गया है। अमिताभ यदि उत्तरप्रदेश की बात करें तो वह “मातृप्रेम,” “मिट्टी का लाल”, लेकिन यदि राज ठाकरे महाराष्ट्र की बात करें तो वह सांप्रदायिक और संकीर्ण… है ना मजेदार!!! मैं मध्यप्रदेश में रहता हूँ और मुझे मुम्बई से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन मीडिया, सपा और फ़िर बिहारियों के एक गुट ने इस मामले को जैसा रंग देने की कोशिश की है, वह निंदनीय है। समस्या को बढ़ाने, उसे च्यूइंगम की तरह चबाने और फ़िर वक्त निकल जाने पर थूक देने में मीडिया का कोई सानी नहीं है।


सबसे पहले आते हैं इस बात पर कि “राज ठाकरे ने यह बात क्यों कही?” इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि जबसे (अर्थात गत बीस वर्षों से) दूसरे प्रदेशों के लोग मुम्बई में आने लगे और वहाँ की जनसंख्या बेकाबू होने लगी तभी से महानगर की सारी मूलभूत जरूरतें (सड़क, पानी, बिजली आदि) प्रभावित होने लगीं, जमीनों के भाव अनाप-शनाप बढ़े जिस पर धनपतियों ने कब्जा कर लिया। यह समस्या तो नागरिक प्रशासन की असफ़लता थी, लेकिन जब मराठी लोगों की नौकरी पर आ पड़ी (आमतौर पर मराठी व्यक्ति शांतिप्रिय और नौकरीपेशा ही होता है) तब उसकी नींद खुली। लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। वक्त के मुताबिक खुद को जल्दी से न ढाल पाने की बहुत बड़ी कीमत चुकाई स्थानीय मराठी लोगों ने, उत्तरप्रदेश और बिहार से जनसैलाब मुम्बई आता रहा और यहीं का होकर रह गया। तब सबसे पहला सवाल उठता है कि उत्तरप्रदेश और बिहार से लोग पलायन क्यों करते हैं? इन प्रदेशों से पलायन अधिक संख्या में क्यों होता है दूसरे राज्यों की अपेक्षा? मोटे तौर पर साफ़-साफ़ सभी को दिखाई देता है कि इन राज्यों में अशिक्षा, रोजगार उद्योग की कमी और बढ़ते अपराध मुख्य समस्या है, जिसके कारण आम सीधा-सादा बिहारी यहाँ से पलायन करता है और दूसरे राज्यों में पनाह लेता है। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि उत्तरप्रदेश और बिहार से आये हुए लोग बेहद मेहनती और कर्मठ होते हैं (हालांकि यह बात लगभग सभी प्रवासी लोगों के लिये कही जा सकती है, चाहे वह केरल से अरब देशों में जाने वाले हों या महाराष्ट्र से सिलिकॉन वैली में जाने वाले)। ये लोग कम से कम संसाधनों और अभावों में भी मुम्बई में जीवन-यापन करते हैं, लेकिन वे इस बात को जानते हैं कि यदि वे वापस बिहार चले गये तो जो दो रोटी यहाँ मुम्बई में मिल रही है, वहाँ वह भी नहीं मिलेगी। इस सब में दोष किसका है? जाहिर है गत पच्चीस वर्षों में जिन्होंने इस देश और इन दोनो प्रदेशों पर राज्य किया? यानी कांग्रेस को छोड़कर लगभग सभी पार्टियाँ। सवाल उठता है कि मुलायम, मायावती, लालू जैसे संकीर्ण सोच वाले नेताओं को उप्र-बिहार के लोगों ने जिम्मेदार क्यों नहीं ठहराया? क्यों नहीं इन लोगों से जवाब-तलब हुए कि तुम्हारी घटिया नीतियों और लचर प्रशासन की वजह से हमें मुंबई क्यों पलायन करना पड़ता है? क्यों नहीं इन नेताओं का विकल्प तलाशा गया? क्या इसके लिये राज ठाकरे जिम्मेदार हैं? आज उत्तरप्रदेश और बिहार पिछड़े हैं, गरीब हैं, वहाँ विकास नहीं हो रहा तो इसमें किसकी गलती है? क्या कभी यह सोचने की और जिम्मेदारी तय करने की बात की गई? उलटा हो यह रहा है कि इन्हीं अकर्मण्य नेताओं के सम्मेलन मुम्बई में आयोजित हो रहे हैं, उन्हीं की चरण वन्दना की जा रही है जिनके कारण पहले उप्र-बिहार और अब मुम्बई की आज यह हालत हो रही है। उत्तरप्रदेश का स्थापना दिवस मुम्बई में मनाने का तो कोई औचित्य ही समझ में नहीं आता? क्या महाराष्ट्र का स्थापना दिवस कभी लखनऊ में मनाया गया है? लेकिन अमरसिंह जैसे धूर्त और संदिग्ध उद्योगपति कुछ भी कर सकते हैं और फ़िर भी मीडिया के लाड़ले (?) बने रह सकते हैं। मुम्बई की एक और बात मराठियों के खिलाफ़ जाती है, वह है भाषा अवरोध न होना। मुम्बई में मराठी जाने बिना कोई भी दूसरे प्रांत का व्यक्ति कितने भी समय रह सकता है, यह स्थिति दक्षिण के शहरों में नहीं है, वहाँ जाने वाले को मजबूरन वहाँ की भाषा, संस्कृति से तालमेल बिठाना पड़ता है।

कुल मिलाकर सारी बात, घटती नौकरियों पर आ टिकती है, महाराष्ट्र के रेल्वे भर्ती बोर्ड का विज्ञापन बिहार के अखबारों में छपवाने की क्या तुक है? एक तो वैसे ही पिछले साठ सालों में से चालीस साल बिहार के ही नेता रेलमंत्री रहे हैं, रेलें बिहारियों की बपौती बन कर रह गई हैं (जैसे अमिताभ सपा की बपौती हैं) मनचाहे फ़्लैग स्टेशन बनवा देना, आरक्षित सीटों पर दादागिरी से बैठ जाना आदि वहाँ मामूली(?) बात समझी जाती है, हालांकि यह बहस का एक अलग विषय है, लेकिन फ़िर भी यह उल्लेखनीय है कि बिहार में प्राकृतिक संसाधन भरपूर हैं, रेल तो उनके “घर” की ही बात है, लोग भी कर्मठ और मेहनती हैं, फ़िर क्यों इतनी गरीबी है और पलायन की नौबत आती है, समझ नहीं आता? और इतने स्वाभिमानी लोगों के होते हुए बिहार पर राज कौन कर रहा है, शहाबुद्दीन, पप्पू यादव, तस्लीमुद्दीन, आनन्द मोहन आदि, ऐसा क्यों? एक समय था जब दक्षिण भारत से भी पलायन करके लोग मुम्बई आते थे, लेकिन उधर विकास की ऐसी धारा बही कि अब लोग दक्षिण में बसने को जा रहे हैं, ऐसा बिहार में क्यों नहीं हो सकता?

समस्या को दूसरी तरीके से समझने की कोशिश कीजिये… यहाँ से भारतीय लोग विदेशों में नौकरी करने जाते हैं, वहाँ के स्थानीय लोग उन्हें अपना दुश्मन मानते हैं, हमारी नौकरियाँ छीनने आये हैं ऐसा मानते हैं। यहाँ से गये हुए भारतीय बरसों वहाँ रहने के बावजूद भारत में पैसा भेजते हैं, वहाँ रहकर मंदिर बनवाते हैं, हिन्दी कार्यक्रम आयोजित करते हैं, स्वतंत्रता दिवस मनाते हैं, जब भी उन पर कोई समस्या आती है वे भारत के नेताओं का मुँह ताकने लगते हैं, जबकि इन्हीं नेताओं के निकम्मेपन और घटिया राजनीति की वजह से लोगों को भारत में उनकी योग्यता के अनुसार नौकरी नहीं मिल सकी थी, यहाँ तक कि जब भारत की क्रिकेट टीम वहाँ खेलने जाती है तो वे जिस देश के नागरिक हैं उस टीम का समर्थन न करके भारत का समर्थन करते हैं, वे लोग वहाँ के जनजीवन में घुलमिल नहीं पाते, वहाँ की संस्कृति को अपनाते नहीं हैं, क्या आपको यह व्यवहार अजीब नहीं लगता? ऐसे में स्थानीय लोग उनके खिलाफ़ हो जाते हैं तो इसमें आश्चर्य कैसा? हमारे सामने फ़िजी, मलेशिया, जर्मनी आदि कई उदाहरण हैं, जब भी कोई समुदाय अपनी रोजी-रोटी पर कोई संकट आते देखता है तो वह गोलबन्द होने लगता है, यह एक सामान्य मानव स्वभाव है। फ़िर से रह-रहकर सवाल उठता है कि उप्र-बिहार से पलायन होना ही क्यों चाहिये? इतने बड़े-बड़े आंदोलनों का अगुआ रहा बिहार इन भ्रष्ट नेताओं के खिलाफ़ आंदोलन खड़ा करके बिहार को खुशहाल क्यों नहीं बना सकता?

खैर… राज ठाकरे ने हमेशा की तरह “आग” उगली है और कई लोगों को इसमें झुलसाने की कोशिश की है। हालांकि इसे विशुद्ध राजनीति के तौर पर देखा जा रहा है और जैसा कि तमाम यूपी-बिहार वालों ने अपने लेखों और ब्लॉग के जरिये सामूहिक एकपक्षीय हमला बोला है उसे देखते हुए दूसरा पक्ष सामने रखना आवश्यक था। यह लेख राज ठाकरे की तारीफ़ न समझा जाये, बल्कि यह समस्या का दूसरा पहलू (बल्कि मुख्य पहलू कहना उचित होगा) देखने की कोशिश है। शीघ्र ही पुणे और बंगलोर में हमें नये राज ठाकरे देखने को मिल सकते हैं…



सुरेश चिपलूनकर

http://sureshchiplunkar.blogspot.com

10 comments:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

सुरेश भाऊ,तुमची गोष्ट शंभर टक्के मान्य आहे ,कोणती ही घटनेच्या जर एकच पक्ष बघीतला तर घेतलेला निर्णय खरा नसू शकते.....
जय भड़ास

Sanjeet Tripathi said...

गज़ब, अपने ब्लॉग जगत के एंग्री यंगमैन इधर भड़ास पर आ गयेले रे बावा ;)
गुड है गुड है!!

Pankaj said...

मानना पड़ेगा बीडू बात में दम है...!

अवनीश said...

वाकई साहब मानना पड़ेगा। आज ही मेरी क्लास में इस बात पर चर्चा हो रही थी। प्रख्यात पत्रकार अनिल चमडिया जी हमे यही बता रहे थे कि वास्तव में यह समस्या क्या है? आपने बिल्कुल सही कहा कि यह हमारे नेताओं का निकम्मापन है जो आज हम इस स्थिति में हैं। हमारी चर्चा में यही बात निकलकर सामने आई कि नेताओं और पूंजीपतियों का एक गठजोड़ है जो विकास की प्रक्रिया को रोक तो नही सकता पर उसे धीमा करने की कोशिश करता है । इससे उस जगह पर बेरोजगारी पैदा होती है । इस बेरोजगारी का उपयोग पुन्जीपती सस्ता श्रम पाने के लिए करता है और नेता अपने लिए भीड़ जुटाने में।

Ankit Mathur said...

सुरेश जी आपने जिन पहलुओं पर रोशनी डाली है
और जिस बेबाक शैली से आपने मुम्बई में
हो रहे घटनाक्रम पर लिखा है, मेरी समझ- (नासमझ) के अनुसार किसी राष्ट्रीय दैनिक
के संपादकीय पृष्ठ पर इस लेख को प्रमुखता से
छापा जाना चाहिये।
और कुछ नही हो सकता तो कम से कम इसे
हम लोग ईमेल के ज़रिये ज़्यादा से ज़्यादा लोगो
तक पहुंचा तो सकते ही हैं।
वाकई आपने एक ऐसे पहलू पर विचार
किया है, जो अभी तक शायद किसी ने सोचा भी
न था।
साधुवाद..

अंकित माथुर...

sushant jha said...

लूट लिया भाई....एक बिहारी का आदाब ले लो..। सारे बिहारी, राज के खिलाफ नहीं हैं..ये एक सामान्य प्रतिक्रिया है जो पिछड़ों और अभावग्रस्त लोगों के जुवान से निकल जाती है।

Unknown said...

Hi myself Gautam from BIHAR.My Dear friend,I think you are not updated with current politices. As you mentioned Anand Mohan, Shahbuddin, Pappu Yadav all of them are ruling in Bihar, for your kind info.all of them are in jail.
One more fact is that if mostly People from UP-Bihar are getting government job, this is only beacuse of talent & hard work.They are cracking exam on national level, which is paternal property of none. You want to know about logic behind publication of Mumbai Rail Recu. in News paper of Bihar, I would like to mention on more thing that if you will subscribe EMPLOYMENT NEWS you will get all these info.not in any Local Paper.

Santosh Dhalwalkar said...

Blog post karat basanaya peksha, jevha raj la jamshepur la ghvun jar bolale tevha sar marathi shantate ne ekatar ka yau shakle nahi blog lihit basu naka asha veli marathi la mahatav daya pakshala nako paksha vicharat gheu nak phila maharashtra ani ekatra ya tarach ya lallu sarakha jala desha bhiman sudha nahi ashana vachak basel marathi manus shantate ne ekatra zamun virodh drashu shakto.

Santosh Dhalwalkar said...

Hi,

Do u know last year total 55000 people get employed in rail out of that only 25 Maharashtrian got chance to work with rail. Do u think that much Maharashtrian people are poor in general knowledge to pass rail exam which is very easy pass. To sit in Bhir and talk abt Maharashatra youth problems. I think publication of Mumbai Rail Recu its not limited to only EMPLOYMENT NEWS its should be public in local news paper if other govt. recu. can be public in local papers then why not rail board.

Do u know fact bhir do u mumbai for one Room they take four ration cards and other fake govt. proof they keep . Anand Mohan, Shahbuddin, Pappu Yadav I dont know abt this guda raja politicians in up and bhir. U talking abt talent and hard work they only know chaku nok pe pass hona in exam papers pass hona. ok Aur itna hi talent hain to Up Develop kar ke dikhav ur politican take lots of garnts and money in the name of development from center govt.

Anonymous said...

Pehli baat. Yeh Raj Thakre ki Chinta nahi balki uski giri hui politics hai. Tareeke ki to baat hi naa karein kyonki yeh koi tareeka hai hi nahi.
Marathi logon ko kewal maharashta mein kaam karna chahiye aur UP ke logon ko kewal UP mein...yeh theory kewal sunane mein acchi hai. Agar aapki baat maani jaae to jitne IT professional bangalore mein hai un sabko kannadiga logon ko bhaga dena chahiye apne apnje rajya mein!
Kya yeh sahi hoga?
Jahan par jaisi zarrorat hoti hai waise log jaatein hai. Mumbai mein man-power chahiye to log palayan karenge hi.
Galat to hai is vishay to ek jayaz roop dena kyonki desh ka aisa vibhajan to sharmnaak hai.
Ab kal agar aap kahon ki maharashtra ko alag country bana diya jae kyonki woh self-sufficient hai, to yeh bhi aapki drishti se sahi hoga.

Likh to de aapne ek dil jeetne waali baat jisme marathion ko bebas dikha diya. Arey railway ka exam to sabke liye hai. Marathi bhi appear ho, paas ho gaye to woh bhi select ho jaenge. Aur agar koi shanka hai to RTI laga dijiye. Lekin nahi, karenge wahi bakwaas.