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12.2.08

हँसते ज़ख्मो की वसीयत




अपने पीछे गम का एक समर छोड़ जाऊंगा
मैं मर के ज़ख्मो की एक फसल छोड़ जाऊंगा
अगले जन्मों तक मिलन को तड़पते रहोगे
जाते जाते दुःख का ऐसा समंदर छोड़ जाऊंगा
अपनी विरासत में ज़मीन जायदाद तो नही
गम के ऊंचे महल और छोटी सी लहद छोड़ जाऊंगा
वसीयत पढ़ के क्यों न लोग रोयेंगे मेरी
सब के वास्ते थोडा सा दर्द छोड़ जाऊंगा
राह ऐ ज़िंदगी में दोस्त कहीं अकेले न हो
तन्हाई की शक्ल में एक हमसफ़र छोड़ जाऊंगा
माही ऐ बेआब की हालत समझता हूँ दोस्त
बेवफा न कहें तड़प का एक चश्मा छोड़ जाऊंगा
गम के बियाबान में तेरे अँधेरा ना होगा रंजेश
चाँद की शमा और सितारों के दिए छोड़ जाऊंगा

रंजेश शाही ' बिसेन '

4 comments:

अनुराग अमिताभ said...

जबरदस्त शानदार पर तुम से पलायनवाद की उम्मीद नहीं है। तुम्हारी कोशिश तुमहारी गंभीरता को पुष्ट करती है।
अपनें व्यक्तिव को अपनी कलम जैसा पैना करो और मुखर हो.....
आखिर जय हिंद का नारा लगाने की शक्ति,अभिमान,गौरव तुम्हारे साथ है,अपने आक्रोश को नई आवाज दो आगाज दो।

यशवंत सिंह yashwant singh said...

वियोगी होगा पहला कवि....लगता है कविताई खून में बसी है, कोशिश जारी रखिए....अमृत भी निकलेगा...
यशवंत

यशवंत सिंह yashwant singh said...

वियोगी होगा पहला कवि....लगता है कविताई खून में बसी है, कोशिश जारी रखिए....अमृत भी निकलेगा...
यशवंत

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

वियोगी होगा पहला कवि ,आह से उपजा होगा गान और वहीं पास खड़ा विडम्बक छेड़ता होगा उल्टी तान...