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19.4.08

एक गज़ल

इस सफ़र से मुझको इश्क है वो फासिलों को घटा ना दे,
ना मिले कभी मंजिल मुझे कोई हमसफर हमनवां ना दे.
ये आजकल के आदमी और मशीन सी ये ज़िंदगी,
मुझे डर है ये फिज़ां कहीं मेरे वज़ूद को ही मिटा ना दे.
मै अकेला जहां मे ठीक हूं कोई तन्हा मुझे कर जाये ना,
सब रकीब हो मंजूर है कोई दोस्त बन के दगा ना दे.

1 comment:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

आलोक भाई,अति सुन्दर,आप तो मेरे दबे घुटे से भावों को अभिव्यक्ति दे रहे हैं; साधुवाद स्वीकारिये....