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9.4.08

ज्वालामुखी

ऊपर से शांत कितना
भीतर से
आतुर
एक ज्वालामुखी
फटने को ।
जिंदगी दुविधा में
शांत रहे या
फट जाए
अकुलाकर ।
तुमुल कोलाहल
अन्दर
ऊपर
नीरवता सी छाई
द्वंद भरा यह
जीवन
कब तक?
अंतस्तल बिंधे हुए
वेदना का स्वर
मौन
किसे किसकी
ख़बर
स्वयं में
गम सभी ।
प्राण निस्तेज
भावनाएं शून्य
जिंदा होने का
एहसास दिलाती
सिर्फ़
एक धड़कन।

वरुण राय

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