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30.4.08

आप भी तो ऐ नीरव मनचले सपेरे हैं।

धूप की हथेली पर खुशबुओं के डेरे हैं
तितलियों के पंखों पर जागते सवेरे हैं
नर्म-नर्म लमहों की रेशमी-सी टहनी पर
गीत के परिंदों के खुशनुमा बसेरे हैं
फिर मचलती लहरों पर नाचती-सी किरणों ने
आज बूंद के घुंघरू दूर तक बिखेरे हैं
सच के झीने आंचल में झूठ यूं छिपा जैसे
रोशनी के झुरमुट में सांवले अंधेरे हैं
डूब के स्याही में जो लफ्ज-लफ्ज बनते हैं
मेरी गजलों में अब उन आंसुओं के पहरे हैं
उजले मन के चंदन का सर्प क्या बिगाड़ेंगे
आप भी तो ऐ नीरव मनचले सपेरे हैं।

पं. सुरेश नीरव
मो.९८१०२४३९६६

3 comments:

VARUN ROY said...

सच के झीने आंचल में झूठ यूं छिपा जैसे
रोशनी के झुरमुट में सांवले अंधेरे हैं
पंडित जी ,
बहुत खूब . आपकी कविताओं से बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है . धन्यवाद .
वरुण राय

Anonymous said...

पंडित जी,
आप मनचले तो हैं ही ना होते तो इतनी बेहतरीन कृति हमारे को कहाँ से मिलती ।
आनंद आ गया।

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

पंडित जी,बड़ी गुलगुली, मखमली और नर्म नर्म सी बातें हैं ऐसा लगता है कि अगर ये मूर्त रूप में होती तो इसे सीने से आंखें मूंद कर कई जन्मों तक लगाए रहता........