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25.4.08

अगर तुम

अगर तुम अपना दिमाग ठीक रख सकते हो जबकि तुम्हारे चारों ओर सब बेठीक हो रहा हो और लोग दोषी तुम्हे इसके लिए ठहरा रहे हों...
अगर तुम अपने उपर विश्वास रख सकते हो जबकि सब लोग तुम पर शक कर रहे हों..पर साथ ही उनके संदेह की अवज्ञा तुम नहीं कर रहे हो..
अगर तुम अच्छे दिनों की प्रतीक्षा कर सकते हो और प्रतीक्षा करते हुए उबते न हो..या जब सब लोग तुम्हें धोखा दे रहे हों पर तुम किसी को धोखा नहीं दे रहे हो...
या जब सब लोग तुमसे घृणा कर रहे हों पर तुम किसी से घृणा नहीं कर रहे हो...साथ ही न तुम्हें भले होने का अभिमान हो न बुद्धिमान होने का....
अगर तुम सपने देख सकते हो पर सपने को अपने उपर हावी न होने दो, अगर तुम विचार कर सकते हो पर विचारों में डुबे होने को अपना लक्ष्य न बना बैठो...
अगर तुम विजय और पराजय दोनों का स्वागत कर सकते हो पर दोनों में से कोई तुम्हारा संतुलन नहीं बिगाड़ सकता हो...
अगर तुम अपने शब्दों को सुनना मूर्खों द्वारा तोड़े मरोड़े जाने पर भी बर्दाश्त कर सकते हो और उनके कपट जाल में नहीं फंसते हो...
या उन चीजों को ध्वस्त होते देखते हो जिनको बनाने में तुमने अपना सारा जीवन लगा दिया और अपने थके हाथों से उन्हें फिर से बनाने के लिए उद्यत होते हो..
अगर तुम अपनी सारी उपलब्धियों का अंबार खड़ा कर उसे एक दांव लगाने का खतरा उठा सकते हो, हार होय की जीत...
और सब कुछ गंवा देने पर अपनी हानि के विषय में एक भी शब्द मुंह से न निकालते हुए उसे कण-कण प्राप्त करने के लिए पुनः सनद्ध हो जाते हो...
अगर तुम अपने दिल अपने दिमाग अपने पुट्ठों को फिर भी कर्म नियोजित होने को बाध्य हो सकते हो जबकि वे पूरी तरह थक टूट चुके हों...जबकि तुम्हारे अंदर कुछ भी साबित न बचा हो...सिवाए तुम्हारे इच्छा बल के जो उनसे कह सके कि तुम्हें पीछे नहीं हटना है....
अगर तुम भीड़ में घूम सको मगर अपने गुणों को भीड़ में न खो जाने दो और सम्राटों के साथ उठो बैठो मगर जन साधारण का संपर्क न छोड़ो...
अगर तुम्हें प्रेम करने वाले मित्र और घृणा करने वाले शत्रु दोनों ही तुम्हे चोट नहीं पहुंचा सकते हों...
अगर तुम सब लोगों को लिहाज कर सको लेकिन एक सीमा के बाहर किसी का भी नहीं, अगर तुम क्षमाहीन काल के एक एक पल का हिसाब दे सको.....
....तो यह सारी पृथ्वी तुम्हारी है...और हरेक वस्तु तो इस पृथ्वी पर है उस पर तुम्हारा हक है....वत्स तुम सच्चे अर्थों में इंसान कहे जाओगे....
- रुडयार्ड किपलिंग ( यह कविता किपलिंग ने अंग्रेजी में लिखी है जिसका कवि हरिवंश राय बच्चन ने हिंदी में अनुवाद अपनी आत्मकथा में किया है....कविता मुझे अलग अलग समय में काफी प्रेरणा देती है...जीने का साहस देती है....)

2 comments:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

विद्युत भाई,सचमुच गहरी सोच है जो उच्च प्रेरणादायी है.....
कुछ ऐसा ही लिखिये जो कहीं और न देखने में आता हो सामन्यतः.....

Anonymous said...

भाई,
धन्यवाद अच्छी चीज़ सामने रखी,
परोसिये कुछ ऐसा जो आपका भडास हो ,
किसी चुतिये की चार लाइन नही।
जय जय भडास