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4.4.08

कहा जाता था कि मैं एक गंदी लड़की हूं

मुझे आज भी याद है जब मैं पांच साल की थी, अपने पिताजी को खोजते-खोजते मैं एक ऑटो वर्कशॉप में पहुच गई थी। वहां कारीगरों के समूह ने मुझे बुलाया और फिर अपने गंदे हाथ मेरी जांघों पर फेरने लगे। सात साल की उम्र में खेल के दौरान एक दोस्त के बड़े भाई ने मुझे बाथरूम में छिपने में मदद की। वहां वो मुझे इधर-उधर छूने और सहलाने लगा। 12 साल की उम्र में मेरे एक चाचा ने मेरा यौन शोषण किया। जब मैं पुरुषों की इन हरकतों के बारे में अपनी मां से कहती, वो मेरे ऊपर यकीन ही नहीं करती थीं और कभी-कभी तो वो जो हुआ उसे मेरी ही गलती बताती थीं। मुझे तब ये पता नहीं था कि ये क्या था लेकिन ऐसा लगता था कि ये मेरे साथ बार-बार होता था।

हमेशा कहा जाता था कि मैं एक गंदी लड़की हूं। बीती बातें दोहराने, अपनी राय देने, कहने के मुताबिक काम न करने या फिर सवाल पूछने पर भी मुझे दंडित किया जाता था। कम उम्र में ही मेरा शरीर विकसित हो गया था और इसने मेरी परेशानियां और भी बढ़ा दी थीं--12 साल की उम्र में ही मैं सी-कप वाली ब्रा पहनने लगी थी। लंबे समय तक मुझे लगता रहा कि मेरे साथ जो कुछ भी होता है उसकी ज़िम्मेदार मैं ही हूं। हालांकि अब मैं वैसा नहीं सोचती लेकिन जवाब मैं आज भी ढूंढ़ रही हूं।

20 साल की उम्र में पहली बार मुझे अपने पैतृक घर की चारदीवारी से बाहर निकलने का मौका मिला और मैंने इस मौके को हाथ से नहीं जाने दिया। मेरे पड़ोस वाले घर में खड़े लड़के में मैंने अपने प्रियतम को देखा और जब उसने मेरे सामने प्रस्ताव रखा तो मैंने तुरंत ही उसे स्वीकार कर लिया। उसके साथ घूमते फिरते परिस्थितियां हाथ से निकल गई। आज मैं शायद इसे डेट रेप की संज्ञा दूंगी। मगर उस समय मैं सिर्फ अपनी मां के उस संभावित गुस्से के बारे में ही सोच पा रही थी जो वो तब करतीं जब उन्हें ये पता चलता कि मैं अब कुंआरी नहीं रही और शायद मैं गर्भवती भी हो सकती हूं। मैं बुरी तरह डर गई थी और किसी से बात भी नहीं कर सकती थी। इन परिस्थितियों में शादी ही मुझे सबसे बुद्धिमानी भरा विकल्प लगा। मुझे इस बात का तनिक भी आभास नहीं था कि मेरा ये क़दम कढ़ाई से सीधे आग में उतरने के जैसा है। एक बार शादी करने के बाद सब कुछ खुल कर सामने आ गया। वो शराबी था, बंदूकों और शिकार का शौकीन था और इसके अलावा उसकी दो बहने हद से ज्यादा मेरी ज़िंदगी में दखल देती थी। मुझे वो ऐसी जादूगरनियां लगती थी जिन्होंने मेरी ज़िंदगी की ज्यादातर चीज़ों पर कब्जा कर लिया था।

मैं बहुत बेसब्री से अपने पहले बच्चे का इंतज़ार कर रही थी। कोई ऐसा जो मेरा अपना होगा, जिसके लिए मैं मां होऊंगी ऐसी इच्छा मेरी हमेशा से ही रही थी। लेकिन उसके पैदा होने के बाद जल्द ही मेरे पति ने बात-बात पर मुझे पीटना भी शुरू कर दिया। दुविधा की हालत में मैंने कई बार आत्महत्या करने की भी कोशिशें की। ये शादी मैंने अपनी मर्जी से की थी इसलिए इस बारे में मैं अपने मां-बाप से भी कुछ नहीं कह सकती थी। कुछ सालों बाद मुझे दूसरा बेटा पैदा हुआ। दो छोटे बच्चे मेरे साथ थे और मेरा कोई सहारा नहीं था। मैं सिर्फ ये उम्मीद कर सकती थी कि एक दिन हालात जरूर बेहतर होंगे। मुश्किलों का पारावार न था मगर दोनों बच्चे मेरी ज़िंदगी में अपार खुशियां लेकर आए थे। वो मेरे सूरज थे और मैं पृथ्वी की तरह उनके इर्द-गिर्द घूमती रहती थी।

31 साल की उम्र में मुझे अपने स्तन कैंसर के बारे में पता चला। मुझसे कहा गया कि मेरे पास जीने के लिए कुछ महीने या फिर शायद एक साल हैं। हालात हमेशा के लिए बदल गए। मेरे छोटे बेटे को मेरी जरूरत थी और मुझे संघर्ष करना भी सीखना था। एकाएक अपनी प्राथमिकता में मैं खुद ही सबसे ऊपर पहुंच गई थी। मैंने सर्जरी करवायी, रेडिएशन और कीमोथेरेपी का सहारा लिया। हर रात बिस्तर पर पड़े-पड़े मैं अपने कैंसर से बात करती थी, "चले जाओ, मैं तुमसे लड़ कर जीतने वाली हूं। मैं ज़िंदा रहूंगी।"

जब मेरा स्वास्थ्य सुधरने लगा तब मैंने अपनी ज़िंदगी में कुछ महत्वपूर्ण फैसले लेने का दृढ़ निश्चय किया। मुझे पता था कि मुझे अपने वैवाहिक बंधन से मुक्त होना होगा और अपने बच्चों की देख रेख का अधिकार भी हासिल करना होगा। लेकिन उस वक्त मुझे झटका लगा जब मेरे बच्चों ने अपने पिता के साथ रहने का विकल्प चुना यद्यपि मैं देख सकती थी कि वो कितने टूट चुके थे। वो 14 और 11 साल के थे। मैं उनके एकमात्र घर को छोड़कर जा रही थी। उनके लिए ये समझना बहुत मुश्किल था कि मैं सिर्फ उनके पिता को छोड़ रही हूं उन्हें नहीं।

पिता के घर मेरी वापसी ने मुझे पूरी तरह से बिखरने से बचाया। मुझे एक नौकरी मिल गई। मैं काम में मशगूल हो गई और सप्ताहांत में अपने बच्चों से भी मिल लेती थी। अपनी ज़िंदगी से संघर्ष के दिनों में मैं अपने बच्चों से पूरी तरह अलग हो गई थी। एक नया आदमी मेरी ज़िंदगी में शामिल हो गया था जिसके सहारे के बिना अपना मानसिक संतुलन बनाए रखना मेरे लिए मुश्किल होता। भारत में किसी औरत को वेश्या घोषित कर देना बहुत आसान है। और मेरे बच्चों को मेरे बारे में ऐसा ही सोचने के लिए मजबूर किया जाता था। उन्होंने मुझसे मिलना बंद कर दिया यहां तक कि दो साल तक उन्होंने मुझसे बात तक नहीं की।

लेकिन दृढ़ता से कुछ भी संभव हो सकता है। मैंने अपना सारा ध्यान भविष्य पर लगा दिया- जब मेरे सिर पर अपनी छत होगी, जिसके नीचे मैं अपने बच्चों के साथ डाइनिंग टेबल के चारो तरफ बैठूंगी, खाना बनाउंगी, बातें करूंगी और हंसूंगी। आज ये सभी सपने करीब करीब-करीब सच हो चुके हैं। मेरा कैंसर खत्म हुए दस साल बीत चुके हैं। लोग कहते हैं मैं पहले से भी सुंदर दिखती हूं, मैं खुद भी ऐसा ही सोचती हूं। मेरे पूर्व पति ने हाल ही में दूसरी शादी कर ली है। 19 साल और 16 साल के दोनों बेटे मुझसे फिर से बातें करने लगे हैं। वो अपने विचारों और योजनाओं पर मुझसे चर्चा करते हैं, मेरे साथी के साथ मेरे रिश्तों को समझते हैं। बुरे दौर में मेरे साथ खड़े रहने पर उनकी सराहना करते हैं। उन्हें हम दोनों के साथ रहने पर भी कोई आपत्ति नहीं है।

मैंने ज़िंदगी मैं कई चीज़े झेली हैं और उन पर पार पाया है मगर इन पर अलग-अलग कुछ कहने की बजाय मैं खुद को बस एक विजेता ही कहना चाहूंगी। मैं आगे की ओर देखना चाहती हूं। मेरे बच्चे अक्सर मुझे फोन करके बताते रहते हैं कि वो मैं जब चाहूं मेरे लिए खड़े हैं। मैं उनके लिए अक्सर किताबें और फिल्में भेजती रहती हूं और उम्मीद करती हूं कि वो इनका लुत्फ भी उठाते होंगे। वो कहते है कि वो मुझसे मिलना चाहते हैं और मैं भी यही प्रार्थना करती रहती हूं कि ऐसा जल्दी हो। शायद हमें एक दूसरे को फिर से जानने की जरूरत है।

जनक

बयालीस साल की जनक कोलकाता में रहती हैं और इस समय एक अकाल्पनिक किताब पर कार्य कर रही हैं।
sabhar: TEHELKA (HINDI )http://www.tehelkahindi.com/SthaayeeStambh/----/541.html

2 comments:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

पंडित जी,जनक जैसे कितने लोग हमारे आसपास ही बिखरे से पड़े हैं बस खुद को समेट पाने का साहस इन जैसे कुछ साहसी लोग ही कर पाते हैं,ईश्वर इन्हें इनके उद्देश्य की पूर्ति में मदद करे....

विशाल अक्खड़ said...

janak ji ke sahas ko dhanyawad. agar uchit samajhen to phone karen kolkata mein hi hoon. Vishal Shukla
9831912499