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28.4.08

नौकरी अखबार की, बनिया-बक्काल की, जय कन्हैया लाल की...

--जेपी नारायण--

वह आज भी अपने शब्दों से सबको गाजर-मूली की तरह काट रहा है। उसी की डायरी से चुराए गए कुछ पन्ने आज यहां आप भी पढ़ लीजिए। जान जाएंगे कि हालात किस कदर संगीन हैं। भीतर कितनी बेचैनी और गुस्सा है। कैसे एक-एक जबड़े में बीस-बीस अंगुलियां घुसी हुई हैं। ....और उनके बीच से रिस-रिस कर बाहर आ रही है कविताओं के सुर में गालियों की चिंगारी....

1....
ढाई बजे रात को

खाता हूं पीता हूं ढाई बजे रात को।
जो जीवन जीता हूं ढाई बजे रात को।
परवरिश घर-परिवार की,
नौकरी अखबार की,
बनिया-बक्काल की,
सत्ता के दलाल दमड़ीलाल की,
धूर्त, चापलूस, चुगलखोर हैं संघाती,
घाती-प्रतिघाती,
उनके ऊपर बैठे हिटलर के नाती,
नौकरी जाये किसी की तो मुस्कराते हैं,
ठहाके लगाते हैं, तालियां बजाते हैं,
मालिक की खाते हैं,
मालिक की गाते हैं,
मालिक को देखते ही
खूब दुम हिलाते हैं,
बड़े-बड़े पत्रकार,
हू-ब-हू रंगे सियार,
इन्हीं के बीच कटी जा रही जिंदगी,
सरसों-सी छिंटी-बंटी जा रही जिंदगी,
अपनी गरीबी और मैं,
चार बच्चे, बीवी और मैं,
महंगी में कैसे जीऊं,
वही पैबंदी कैसे सीऊं,
रोज-रोज सीता हूं ढाई बजे रात को।
खाता हूं, पीता हूं ढाई बजे रात को।
बैठा है कमीशन तनख्वाह बढ़ाएगा,
सात साल हो गए
लगता है फिर मालिक पट्टी पढ़ा़एगा,
दो सौ किलो मीटर प्रतिघंटा महंगाई की चाल,
जेब ठनठन गोपाल।
मकान का किराया
और दुकान की उधारी,
रूखी-सूखी सब्जी
और रोटी की मारामारी,
साल भर से एक किलो दूध का तकादा,
इसी में फट गया कुर्ता हरामजादा,
दिमाग में गोबर, आंख में रोशनाई
फूटी कौड़ी नहीं, आज सब्जी कैसे आई,
सोचता सुभीता हूं, ढाई बजे रात को।
खाता हूं, पीता हूं, ढाई बजे रात को।


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2.....
सुनो कालीचरन!

पत्रकारिता तो अब
जूते की नोक पर होगी कालीचरन!
क्योंकि मिशन गया तेल लेने
और कलम गयी गदहिया की गां.... में।
आगया तो आ ही गया
कंप्यूटर,
उसी पर रात-दिन छींको-पादो,
आंख फोड़ो
हाथ जोड़ो
चार पैसा कमाओ,
घर जाओ,
बाल-बच्चों का पेट पालो।
वरना ....की....चू.....
पत्रकारिता का भूत
कहीं का नहीं रहने देगा तुम्हें,
रोओगे-रिरिआओगे,
एक अदद अंडरवियर के लिए
रिक्शे के पायदान पर
हांफते नजर आओगे,
कहां धरी है नौकरी
नहीं करना तो क्यों करी?
करना है तो कर,
जूते की नोक पर,
संभाल अपना पेट, अपना घर।
कुंए में भांग पड़ी है
विदेशी पूंजी सामने खड़ी है।
वो देख,
उधर ब...न के लं...वी-सेट
आ गया इंटरनेट
गेटअप, मेकअप अप-टू-डेट,
चकाचक्क, भकाभक्क,
विश्वसुंदरी पत्रकारिता के उन्नत ...तड़ों से
झड़तीं एक से एक गोबड़उला खबरें धक्कामार
सात समुंदर आरपार,
सर्रसर्र, फर्रफर्र शेयर बाजार,
कहीं चढ़ाव, कहीं उतार,
और पूंजी की रेलमपेल
देख-देख ....दरचो....
अखबारी खेल,
मिशन गया लेने तेल
खबर गयी कलम के भो...ड़े में
स्साला भाड़
फट गयी गां....
छींक-पाद,
हरामी की औलाद
पराड़कर का च.......ओ...द्दा।
पत्रकारिता होगी अब कलम की नोक पर.............


3......
अंडू वन-डे का फोरमैन

घूर-घूर कर मुस्कराता है
छापेखाने का फोरमैन,
सनसनीखेज खबरों से अंटे अखबार की तरह
लाल-लाल डोरोंवाली एक जोड़ी आंखें...
आंखों के बीच से झांकतीं
अधपकी मूंछों तक
निरंतर तनी नासिका
और पान की जर्दीली पीक से
पपड़ाये होठों पर बार-बार
चक्कर लगाता रक्ताभ-जिह्वाग्र....
घूरते हुए मुस्काना
मुस्काते हुए डांटना,
फिर डांट-डपट, गाली-गलौज
और हाथापाई पर उतर आना फोरमैन की
बेमियादी बीमारी है।
अखबार के दफ्तर में
इकत्तीस साल से डोल रहे हैं बूढ़ी मशीनों पर
उसके जवान हाथ
जिसकी जुबान खबरचियों की खबर लेने के
सारे गुर आजमा चुकी है।
अपनी इकत्तीस साल की दुनिया का
खबरदार पन्ना है बूढ़ा फोरमैन,
जिसके होशो-हवास पर तीन दशकों का
अखबारी अतीत दर्ज है।
संपादकों, संवाददाताओं, चपरासियों, आपरेटरों, मशीनमैनों की
भीड़ जुटने से, अखबारी सुबह होने तक
इस-उस से
अथ-इति होने तक
क्या कुछ नहीं कह डालता है
अंडू वन-डे का फोरमैन...

नौसिखिये संपादकों को नहीं मालूम
कि कैसे भागती हैं खबरें,
उन्हें पकड़ना होता है पाठकों की सुबह
और सेठ की तिजोरी
एक साथ!

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(साभार : http://behaya.blogspot.com)

3 comments:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

दादा,अपुन तो बोलता है कि अपुन लोग बी उपाधि देना अगर शुरू करें न जइसा कि भारत सरकार करती है वो पद्मश्री, पद्म भूषण वगैरे तो जे.पी. भाई को कमीत कमी "भड़ास-भूषण" तो नक्की देना इच पड़ेगा, बाप क्या खत्त्तर-खत्त्तरनाक भड़ासी है अइसा आदमी आजकल कित्ता होएंगा....

VARUN ROY said...

यशवंत भाई ,
ये जे पी नारायणजी तो गजब की चीज हैं. शालीनता का लबादा ओढे चंद सफेदपोशों को उनकी भाषा पसंद तो नहीं आयेगी परन्तु उनकी लेखनी दिमाग में धमाका करती है .
वरुण राय

Anonymous said...

दादा की जय हो,
हम जे पी जी की लेखनी के कायल तो पहले ही हो गए थे अब तो ख़ुद पता नही की क्या कहें, वैसी जो भी हो कमाल का है और कमाल हमारे भडास का भी ,
लोगों को बहूत कुछ और जानना है और बस हमारे जे पी जी की लेखनी से सच नही अपितु सफ़ेद सच से रु बा रु होना है।
वैसे रूपेश भाई ने सही कहा है ये विचारनीय होना चाहिए और भडास भूषण की उपाधि की और आपको अब विचार देना ही होगा।
जबरदस्त लेखन है वीरू ।

जय जय भडास