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4.4.08

हसिबा खेलिबा धरिबा ध्यानम् भाया भडास

स्वामी चैतन्य कीर्ति एक बार प्रख्यात लेखक खुशवंत सिंह को ओशो की रचना ''इंडिया:माई लभ'' भेंट करने गए थे। पुस्तक को देख कर ,पलट कर खुशवंत सिंह ने कहा ओशो ने तो भारत और भारतीय के सम्बन्ध में बहुत कुछ अप्रिय भी बोला है। स्वामी जी ने जबाब दिया की हाँ,बहुत अप्रिय कहा है लेकिन वह भारत को झकझोर देने वाला और जगाने के लिए कहा है। दरअसल जो व्यक्ति भी इस देश से प्रेम करता है,वह इस देश के सम्बन्ध में केवल मीठी-मीठी बातें नही कर सकता ,केवल इसका गुणगान नही सकताउसे कुछ सत्य उजागर करने ही होंगे ,वे चाहे कितने ही कटु क्यों न हों। भारत की मानसिकता को आत्मस्तुति,आत्म्प्रशंशा के गीत अच्छे लगते हैं,लेकिन उससे भारत को दाइबितिज की बीमारी भी बड़े पैमाने पर हो गयी है।

तो इन दो व्यक्ति के इस वार्तालाप को भडास पर रखने का मेरा उद्देश्य अपने तथ्यों को पुष्ट करने का जतन मात्र ही नही है बल्कि सत्य के पक्ष में बुलंद स्वर को सामुहिक बनाना है। एक मित्र ने सलाह दिया की गाली जैसे बहिष्कृत शब्द ,विस्फोटक शब्द के इस्तेमाल से तो पाठक आपसे दूर चले जायेंगे। तो मैं इसके लिए थोरा भी ध्यान नही रखता की लोग भडास के करीब आयें या दूर चले जायेंगे। जो ठीक है और सच है वही कहूंगा ,जो देखा है वही बोलूंगा,जो सूना है वही बकुंगा,जिसे झेला है वही दिखाउंगा,जिन गालिओं को रोज सूना है वही सुनाऊंगा,कहूंगा,जो प्रेम के पात्र हैं उन्हें प्रेम से लाद दूंगा जो गाली के पात्र हैं उनको गाली नही तो प्रिय तू ही बता उसे क्या दूँ? तो जो सत्य है उसे कड़वी चाशनी में डाल कर ये मिठाई खिला रहा हुं,इस सत्य का परिणाम क्या होगा उसकी मुझे ज़रा भी चिंता नही है। प्राथमिक परिणाम यह होगा की लोग भागेंगे,भडास को गरियाएंगे क्योंकि जिस धारणा में वे पले हैं उस पर चोट पड़ रही है,उसे नंगा किया जा रहा है। तो ऐसा होना कोई नयी घटना थोड़े ही है। सत्य का हमेशा से यही परिणाम होता आया है । इससे डर कर,घबरा कर अगर धारणा तोड़ने से हम बचना चाह रहे हैं तो हम सत्य कभी बोल ही नही सकते हैं.अगर स्थापित धारणा को तोड बगैर बोला गया जो सत्य होगा वह एक नाटक होगा,दिखावा होगा,असत्य का संवर्धन भी होगा,असत्य की स्थापना का पुनर्प्रयास ही होगा। फ़िर मैं या यशवंत दादा कोई मुखिया का इलेक्सन लड़ने नही जा रहे हैं की इसकी फ़िक्र करें की लोग हमारे पास आयें या इसकी फ़िक्र करें की भडास के बारे में पब्लिक ओपिनियन क्या है। और जहाँ तक महिला और लड़किओं को भड़ास पढने की बात है तो इस मामले में यह कहना चाहूँगा की वे महिलाएं या लड़किआं गाली जैसे अवशिष्ट शब्द से इतनी नफरत ही करती हैं तो ये देखने समझने की कोशिश क्यों नही करती हैं की आख़िर गाली किन्हें दिया जा रहा है,क्यों दिया जा रहा है। अगर वे सम्मानजनक कार्य करते तो बधाई मिलती,अनैतिक कार्य किए हैं तो गालिआं ही न मिलेगी। तो गीत सुनने की सामुहिक स्वीकार्यता की जगह गाली क्यों नही ली जा रही है,यह समझ के परे लगता है। उन महिलाओं या लड़किओं को ख़ुद से यह सवाल करना चाहिए की भडास किसी सम्मानित को गाली नही बक रहा है बल्कि जो इसके पात्र हैं उन्हें गाली देने में कोताही भी नही कर रहा है,किसी का मान हानी नही कर रहा है ,अरे भाई जिसका कोई मान ही नही हो ,जो इन प्रतिमानों का खुलेआम गला घोंट रहा है वह मान हानिका क्या दावा करेगा,हाँ अदालत जरुर मान हानि मानेगी,सजा मुक़र्रर करेगी तो ठीक है चला जाऊँगा जेल ....वहीं भीतर बैठ कर पत्थर तोदुंगा....डाक्टर रुपेश भाई एक लैप टॉप भिजवा देना जेल में ही बैठ कर भडास पर लिखूंगा,जब तक रहूंगा तब तक बकुंगा, जब तक जिउन्गा अनवरत बकुंगा सत्य के पक्ष में लगातार लिखता रहूंगा। सत्य को स्वीकारने के लिए मुल्क पर दबाब डालूंगा,युवाओं को जगाउंगा,जो स्वीकार्य है उसे स्वीकारो जो अपशिष्ट है उसे कुडेदान में डाल दो। क्योंकि अब बस करो,बहुत हो चुका ,बहुत देख चुके आपके समाज के ऐसे कथित मानों और प्रतिमानों को तो संजीव झा अगर आपकी नजर में पूज्य है तो पूजो ,संगीता की नजरों से मैं जिस संजीव झा को देख रहा हुं ,वह तो बकुंगा ही,बोलूंगा ही....हाँ जिस दिन मेरा अस्तित्व मिटा डालोगे उसी दिन चुप होउंगा,फ़िर कोई मनीष आयेगा फ़िर कोई यशवंत आयेगा ,फ़िर भडास आयेगा और सभ्यता के अन्तिम दिनों तक तुम्हे तुम्हारे सत्य के विकृत रूप को दिखाता रहेगा। तो भडास जो बातें कह रही हैं वह चोट करने वाली है,आघात पहुंचाने वाली है और विध्वंसकारी भी है। और मेरे जैसे ठेठ ग्रामीण आज यह स्वीकार भी कर चुके हैं की हिन्दुस्तान में अब तक दो ही क्रांति-बिज विशाल बट-वृक्ष बन कर लोगों की चेतना जगाने में सफल हो सके हैं एक ओशो और दूसरा ''भडास''। अब तक सभी चिंतकों,विचारकों,लेखकों उनमें से किसी ने स्थापित मान्यता पर चोट करने की हिम्मत नहीं जुटा पायी है ,पुराने ढांचा में पुराने शब्दों का ही उपयोग किया है ,पुरानी मान्यता को ही स्वीकार कर के थोडी बहुत शब्दों का हेर-फेर किया है। लेकिन सीधी चोट करने की हिम्मत सिर्फ़ ओशो ने और भडास ने ही किया है।
तो हम पागल ही सही लेकिन तब तक सच बोलते रहेंगे जब तक संगीता और मनोहर जैसे को न्याय की दहलीज पर ला कर खडा न कर दें।

जय भड़ास
जय यशवंत
मनीष राज बेगुसराय

3 comments:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

मनीष भाई,ठीक यही सोच तो अमर शहीद रामप्रसाद’बिस्मिल’जी की रही पर आज जब मैं देखता हूं कि क्या जो बीज इन लोगों ने अपनी शहादत से लगाया था कि आने वाले कल में यह विचार का बीज बरगद का पेड़ बनेगा या ओशो ने जो विचारों का बीज बोया हमारी धरती पर वह अंकुरित तो होता है पर बढ़ता नहीं बोनसाई की तरह से ठिगना रह जाता है क्या हमारे देश की मिट्टी ही ऐसी है या माली लोग बरगद को बोनसाई बना देने में माहिर हो गये हैं? जेल जाने की बात हो तो अकेले मत जाइएगा हम भी चलेंगे और उधर भी ऐसे ही किचिर-किचिर करते रहेंगे।
"तो हम पागल ही सही लेकिन तब तक सच बोलते रहेंगे जब तक संगीता और मनोहर जैसे को न्याय की दहलीज पर ला कर खडा न कर दें।"
न्याय की दहलीज पर लाकर खड़ा करने से काम पूरा नहीं होगा बल्कि न्यायपालिका को भी न्याय देने के लिये बांस करना होगा वरना न्याय के लिये लम्बित पड़े नौ लाख मामलों की फेहरिस्त में एक और मामला शामिल हो जाएगा....

दीपक said...

सच को सच कहो तो बात हो "
नरमी क मख्खन तो सभी लगा रहे है "
लोग बहरे है ,आवाज बुलन्द चाहिये "
वरना रन्गीन इकतारा तो लाखो बजा रहे है "

Anonymous said...

Bhai lage raho,
Samaj ki esi ki taisee,