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26.4.08

पत्रकारिता की कोख में कैसे-कैसे पाप, टीआरपी सिंह लड़कियों के शौकीन हैं!, बड़ा नाम करेगा चुगलू फादर......च्च्च्च्चो!

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पत्रकारिता की कोख में कैसे-कैसे पाप


पत्रकारिता के लिए आज सबसे फिट और एकल संबोधन है...मीडिया मार्केट। कोई मिशन-फिशन नहीं रहा। शुद्ध धंधा। जैसी की पहली पोस्ट पर कुछ मित्रों की लिखित-मौखिक प्रतिक्रियाएं रहीं, उनके या अन्य किसी के अंदेशे का मैं यहां समन करने नहीं जा रहा, न ही सोदाहरण इस पर यहां कुछ लिखने-पढ़ने या भंडाफोड़ जैसी सनसनी परोसने की मेरी मंशा है। क्योंकि शीत-पीत पत्रकारिता के झंडाबरदार इस पर पहले ही काफी कुछ कागजी शेखियां बघार चुके हैं। यहां मैं अपनी बात क्रमशः सौ (प्रतिदिन दस)काल्पनिक पात्रों के माध्यम से रखने जा रहा हूं, जो ईमानदार और भ्रष्ट, कनिष्ठ-वरिष्ठ दोनों तरह के पत्रकारों के मन की गांठें खुद-ब-खुद खोलते चले जाएंगे....

.....घीसू-माधव एक ही अखबार में काम करते हैं। घीसू (आत्मा से) मर चुका है। माधव मर रहा है। दोनों ने तिल-तिल मौत का रिहर्सल और एहसास भी किया है।

....घीसू का बेटा शहर के सबसे महंगे कान्वेंट स्कूल में पढ़ रहा है। उसके पास एसी गाड़ी, शहर के सबसे पॉश इलाके में शानदार बंगला और पत्रकारिता की दुनिया में उसका क्या खूब बिकाऊ-टिकाऊ नाम है।

....माधव अभी पत्रकारिता के पराड़करी तर्पण में अस्तव्यस्त है। गर्मियां मटके के पानी में बीत जाती हैं, बच्चे गांव की पाठशाला में नाक पोंछ रहे हैं। पत्नी १८ की उमर में ३८ की हो चली है। बूझो तो जानें कि माधव की मौत और घीसू की जिंदगी के अर्थ क्या हैं?

......घीसू क्राइम रिपोर्टर है। माधव को दफ्तर में अपने बड़ों के पैर छूने नहीं आता। घीसू को मालूम है कि किस सर के घर शराब की पेटी पहुंचानी है, किस सर के खाने की टिफिन उनकी मेज पर लगानी है, किस सर के कपड़े प्रेस कराना है, किस सर का बच्चा जब जोर जोर से रोता है तो कौन सी टाफी खिलाने पर चुप हो जाता है।

.....एक बार घीसू अपने स्वामी के चेंबर में दबे पांव घुसा कई कुंतल विनम्रता ओढ़े हुए, पूरी आस्था से दांत निपोरे हुए। बोला, सर आपको देखकर मुझे अपने पिता की याद आती है। आप मेरे पिता समान है। स्वामी बोले, वो तो मेरे यहां नौकरी करने वाला हर कर्मचारी मुझे पापा कहता है। जब दूसरे अखबार में जाता है तो वहां के स्वामी उसके पापा हो जाते हैं। तुम जैसे कर्मचारियों के बीच मैं यूं ही टकलू नहीं हुआ हूं।

....एक बार स्वामी को हंसते हुए देखकर माधव को हंसी आ गई। स्वामी का चौंकना स्वाभाविक था कि जब मेरे इर्द-गिर्द खड़े इतने बड़े-बड़े महानुभाव (दर चापलूस) मेरी हंसी के डर से घर तक पत्नी-बच्चों को डांट भगाते हैं, फिर इस ट्रेनीज कमीनगी के मायने क्या हो सकते हैं? माधव आज तक स्वामी की हंसी और अपने डिमोशन का अंतर नहीं समझ पाया।

....घीसू की बीवी एक कथित राष्ट्रीय दल की जब्बर दलैत है। बेटा थानों से चौथ वसूलता है। (पुत्र के परमानेंट होने के बाद से) पिता शहर के नामी समाजसेवी हैं। हर महीने, हर थाने से उनके नाम सफेद लिफाफा आता है। अखबार के फोटोग्राफर ने घीसू के बच्चों की अब तक आठ दर्जन से ज्यादा तस्वीरें खींचीं हैं। शहर के सिपाहियों के दबादले की सूची घीसू की माता जी बनाती हैं।

....माधव की मां तपेदिक से मर चुकी है। पिता गठिया का मरीज है। बाकी बीवी-बच्चों के बारे में हर किसी को पता है।

......घीसू के पास कई बीवियां हैं। कई दुकानों से उसके यहां शराब की पेटियां आती हैं। हर रिक्शे वाला उसके बच्चों को स्कूल ले जाने के लिए लालायित रहता है। बीवियां थाने से नीलामी की गाड़ियां उठवाती हैं।

.....ड्यूटी से छूटने के बाद माधव शराब पीता है और गालियां देता है। कहता है, आज तक मुझे कभी जेल की सजा नहीं हुई। सोचता हूं, एक बार ३०७ में जेल हो आऊं!

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टीआरपी सिंह लड़कियों के शौकीन हैं!


1. पत्रकारिता एक माल है, निजी संपत्ति जुटाने का खेल है, इसलिए युवतियों की नंगी फोटो छापो। नंगी फोटो छापना भी कोठे चलाने की एक विधा है। आज-कल संपादक लंपट सिंह इस काम में सबसे बोल्ड लीचड़ माने जाते हैं।

2. टीवी पत्रकारिता टीआरपी की भड़ैती में व्यस्त और मस्त-मस्त है। अब तो निर्वस्त्र दृश्यों से भी उनका काम नहीं चल रहा है, सो कोठेबाजी को आयुष्मान बनाए रखने के लिए हंसोड़ों की फौज लेफ्ट-राइट करने लगी है। ऐसे निर्लज्ज हंसोड़, जो अपनी मां-बहन को छोड़ पूरी दुनिया की औरतों के जिस्मानी चटखारे लेने का धंधा करने लगे हैं। गंदे जोक के नाम पर एंकरिंग की दुकान भी पूरी बेहयायी से कंडोम और चोली-घाघरा की तिजारत करने लगी है। ऐसे दो भड़ैत भड़भूज बुद्धू और चेंकर चुम्मन दांत चियारे, हाथ पसारे आजकल करोड़ों में खेल रहे हैं। तुर्रा यह कि दुनिया को हंसा रहे हैं। जरा अपनी मां-बहन को नंगा नचाकर दुनिया वालों को हंसाओ तो जानें।

3. लंपट सिंह कहते हैं कि सेठ जी की मौत की खबर तीन कालम में पेज के टॉप पर लगेगी। लू-ठंड और मुफ्लिसी की मिर्गी से मरने वालों को संक्षेप कॉलम में कहीं किनारे चेंप कर छुट्टी पाओ। समझे कि नहीं समझे! उठावनी के विज्ञापनों से अच्छी कमाई हो रही है। खबरें हटाकर उठावनी छापो, तभी तो तुम्हारी सेलरी का जुगाड़ होगा।

4. एक साहित्य संपादक भांड़ेन्द्र जी मुद्दत से स्री-विमर्श में तल्लीन हैं। ओक्का-बोक्का, तीन चलोक्का, लइया-लाची, चंदन काटी, इजयी-न-विजयी, पान-फूल ढोंड़वा पचक्क। अपने लीद-लेखों में वे अक्सर लिखा करते हैं कि स्त्री के पास एक देह ही तो ऐसी चीज है, दिखाने-भुनाने के लिए। उसकी लड़ाई का सबसे मजबूत हथियार उसका देह है। वैसे संपादक जी की स्री-पटकथा से भला कौन वाकिफ नहीं।

5.चूंकि देश की राजधानी में रहते हैं, इसलिए टीरापी सिंह, भांड़ेन्द्र जी और लंपट सिंह रोजाना शाम सात-आठ बजे मुफ्त के तीन-चार पैग सूतने के बाद देश-दुनिया और अखबारी मालिकाने पर गंभीर चर्चाएं-मंत्रणाएं किया करते हैं। आखिरकार उनकी बैठकी यह सिद्धकर ही समाप्त होती है कि सेठ, सांसद और अफसरशाह महान हैं। भारत भुक्खड़ों का देश है।

6.लंपट सिंह पहले जहां काम करते थे, एक दिन स्वामि-भक्ति की पिनक में अखबार-मालिक को त्यागपत्र थमा बैठे। बदकिस्मती से स्वामिभक्ति गच्चा दे गई। इस्तीफा मंजूर हो गया। अगले दिन सिक्योर्टी ने जनाब को प्रेस में घुसने से रोक दिया तो पहुंच गए मालिक के बंगले पर। बर्फी और कॉफी से अगवानी के बाद मालिक सर बोलेः भाई रिजायन कर दिया है तो क्या हो गया, कभी कोई दिक्कत-परेशानी अकेले मत झेलना, मुझे खबर कर देना, मदद कर दिया करूंगा। अब नौकरी करके क्या करोगे। लंपट जी चक्कर खाकर गिर पड़े। वहीं खून की बोमेटिंग हुई। अब बेचारे सालों की बेरोजगारी के बाद उठावनी और अश्लील तस्वीरें छापने के नए आइडिया के साथ दिल्ली में नमूदार हुए हैं।

7. सभी न्यूज चैनलों को मालूम है कि टीआरपी सिंह देश का सबसे बड़ा आइडिया-चोर है। पूरा-का-पूरा पैकेज चुटकियों में टिपवाकर अपने यहां कर देता है...फ्लैश-फ्लैश!! चोखा-चटनी-घी-अचार के बावजूद बाकियों का जायका फिस्स। यानी टीआरपी खुश, बाकी फुस्स। इसे कहते हैं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, समझे-कि-नहीं समझे!

8.लंपट सिंह बड़े विद्वान और बाल-साहित्य-विशेषज्ञ हैं। रोजाना जब तक दो-चार कर्मचारियों के बच्चों के पेट पर लात न मार लें, उनको खाना हजम नहीं होता है। अब तक छप्पन दर्जन लात मार चुके हैं। वैसे वह मारपीट और गाली-गलौज के सख्त खिलाफ हैं। सशस्त्र-वार्ता के बाद एक बार थाने में अनायास पसीने-पसीने हो गए थे।

9.टीआरपी सिंह लड़कियों के करारे शौकीन हैं। गीत-गजल अच्छी लिखते हैं। भंडाफोड़ होते ही बच्चों की तरह फूट-फूटकर रोने-रिरियाने लगते हैं। अपनी जिस्मानी लुच्चई के फेर में अब तक कई चैनल बदल चुके हैं। कई बार पिटे-पिटाये भी हैं। अब तरह की दैहिक समीक्षा के आदती हो चले हैं। दिल्ली में सब चलता है।

10.लंपट, टीआरपी, भाड़ेंद्र, भड़भूज बुद्धू, चेंकर चुम्मन भारतीय पत्रकारिता के दैदीप्यमान नक्षत्र हैं। नक्षत्र क्या, चांद-सूरज या सप्तऋषि-मंडल हैं। मंडली के आगे सरकार, पीछे कई पुश्तों का बैंक-बैलेंस है। पराड़कर जी ने इसीलिए तो बनारसी मालदार बाबू शिवप्रसाद गुप्त की चौखट पर मत्था टेक कर इस देश में पत्रकारिता के आदर्श रचे थे। जय हो! जय हो!!

-करतूतें सच्ची, नाम काल्पनिक।


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बड़ा नाम करेगा चुगलू फादर......च्च्च्च्चो!


(यहां मैं चरित्रहीन मीडिया की बातें क्रमशः सौ (प्रतिदिन दस) काल्पनिक पात्रों के माध्यम से रखता जा रहा हूं, जो ईमानदार और भ्रष्ट, कनिष्ठ-वरिष्ठ दोनों तरह के पत्रकारों ही नहीं, पूरे मीडिया-सिस्टम के मन की गांठें खुद-ब-खुद खोलते चले जा रहे हैं....लंपट दुबे, टीआरपी सिंह, भाड़ेंद्र जादो, भड़भूज बुद्धू, चेंकर चुम्मन भारतीय पत्रकारिता के दैदीप्यमान नक्षत्र हैं....से आगे पढ़ें आज...पत्रकारिता की कोख में कैसे-कैसे पापःतीन.....बड़ा नाम करेगा चुगलू मादर......च्च्च्च्चो!)


1.बिगांडू महतो अभी साल-छह महीने से अखबार के पेशे में आया है। हक्का-बक्का है। चपड़दंती मुंह बाए दिन भर शहर के इस कोने से उस कोने तक ड्यूटी बजाता फिरता है। शाम को इकट्ठे पूरी रिपोर्ट मुंह जुबानी एडिटोरियल इंचार्ज को देनी होती है। ड्यूटी भी कोई ऐसी-वैसी नहीं, खबर-सबर की नहीं, लिखने-पढ़ने-पढ़ाने की भी नहीं, सब साबुत-साबुत मुंह-जुबानी। ......कि हमारे अखबार का रिपोर्टर आज हमारे प्रतिद्वंद्वी अखबार के किन-किन रिपोर्टरों से मिला। ....कि किस रिपोर्टर ने आज हमारी कौन-सी खबर लीक की। ....कि फलां कार्यक्रम के इनोग्रेशन में फलां संपादक को क्यों बुलाया गया, हमें क्यों नहीं। .....कि पत्रकार संघ के चुनाव में हमारे अखबार का कंडीडेट विरोधी अखबार के कंडीडेट से क्यों हार गया, मतदान में कौन-कौन से हमारे-अपने विभीषण रहे?

2. फटीचर मंडल सर्कुलेशन इंचार्ज हैं। उनको आज-कल एक ही चिंता खाए जा रही है। एबीसी वाले शहर में डेरा डाल चुके हैं। अब क्या होगा। साल भर रिपोर्ट तो नंबर दो में बनी है। अब वे खंगालेंगे एक-एक रिकार्ड। बाहर रास्ते में अखबार के बंडल से लदी गाड़ियां चेक करेंगे। मंडल साहब एक बार फिर उसी आजमाये पुराने फार्मूले को भिड़ाने में जुटे हैं कि सांप भी मर जाए, लाठी भी न टूटे। चार-पांच जोड़ी जूते, चार-पांच दर्जन चूड़ियां और साड़ियां, दस किलो मिठाई, प्रति कंडीडेट दो-दो सेट कपड़े...। ऐं, ये क्या है? सर्कुलेशन गुरू फटीचर मंडल से पूछिए!!

3. सर्कुलेशन गुरू फटीचर मंडल की एक टेंशन हो तो झेल भी जाएं, रोज चार तरह के टेंशन। आज-कल एजेंटों का फिर माथा फिरा हुआ है। सवेरे अखबार के बंडल उठाने की बजाय सेंटर पर पहले मीटिंग करते हैं। नेतागीरी का शौक चढ़ा है। कहते हैं, आज हम अखबार नहीं उठाएंगे। पहले एक रुपया हमारा कमीशन बढ़ाओ। अब कमीशन कहां से बढ़ाएं। अखबार का रेट बढ़ाते ही ग्राहक बोलते हैं, ई कूड़ा-कबाड़ा हमे नहीं पढ़ना, कल से अखबार बंद कर दो। अब रेट बढ़ाएं तो सांसत, न बढ़ाएं तो। इसी चक्कर में रोजाना सर्कुलेशन गिर रहा है। लगता है कि इन पर भी वहीं पुराना फार्मूला एक बार फिर आजमाना पड़ेगा....दै डंडा, दै डंडा, पट्ट कर दो सबों को एक साथ। अभी क्राइम रिपोर्टर से तिग्गी भिड़ाता हूं कि पिटाई के समय कोई पुलिस वाला बीच में न आए।

4. मुच्छड़ दुबे पुराने गुंडे हैं। कालेज के दिनो के। बेचारे ने अखबार में नौकरी कर ली है। अब उसे रोज अपने संपादक को बताना है कि कौन, किसके कान में क्या फुसफुसा रहा था। किस रिपोर्टर की किससे ज्यादा पटती है, मुझसे किसकी ज्यादा फटती है। आज कल डेस्क वाले शाम को आने वाली मिठाइयों को क्यों दबा जा रहे हैं। खुद ही खा जा रहे हैं। चुनाव का मौसम है। फिल्ड से मिठाइयों के इतने पैकेट रोजाना आ रहे हैं, मेरी मेज तक एक भी नहीं पहुंचे। जरा पता तो लगाओ, इसके पीछे शरारत किसकी है, किसका दिमाग इतना तेज काम कर रहा है, अभी दुरुस्त करता हूं। आखिर मैं भी बाल-बच्चेदार हूं, दो-चार पैकेट मुझे भी तो घर के लिए चाहिए। आज-कल रिपोर्टरों को फिल्ड में खूब गिफ्ट भी मिल रहा, सो अलग से। सब दबाके बैठ जा रहे हैं, जरा कस के पता करो, बाकी सब काम-धाम छोड़ दो। ठीक-ठीक पता कर लिये तो इस बार प्रमोशन-इंक्रीमेंट डबल। इसी तरह लगे रहो, लंबी रेस का घोड़ा बनोगे, पत्रकारिता में आगे चल कर बड़ा नाम करोगे पट्ठे। और क्या, तुम कोई ऐसा-वैसा काम थोड़े ही कर रहे हो दुबे जी। सबसे पक्का काम कर्मचारियों की जासूसी और इधर-उधर का लगाना यानी चुगलखोरी। तुम भी खुश, हम भी खुश। अखबार जाए चूल्हे भाड़ में।

5. चिंटू-पिंटू की ड्यूटी है कि सबके उसमे (.....) डंडा किए रहो। किस-किस के उसमें (.....) डंडा करना है सर? अरे!! ये भी कोई पूछने की बात है! दाढ़ी-मूंछ सफेद कर लिये प्रेस की नौकरी में, और ये तक पता नहीं कि किस-किसके उसमें (....) डंडा किये रहा जाता है? होटल वालों के, थाने वालों के, सिनेमा वालों के, मंडी वालों के, मिठाई वालों के, शो रूम वालों के, बिजली वालों के, पानी वालों के, मीट-मुर्गा वालों के, फल-सब्जी वालों के, ठेकेदारों के, नेताओं के, उठावनी के विज्ञापन देने वालों के.....। सर, तब तो पूरे शहर के उसमें (.....) डंडा करना पड़ेगा! हां, और क्या। तुम्हे रक्खा किसलिए गया है चिंटू-पिंटू। कुछ मालूम है, चूतिया कहीं के! मादर......च्च्च्च्चो।

6. तरकर जी बड़े सीनियर जर्नलिस्ट हैं। अब तक देश के उत्तर-दक्षिण, पूरब-पश्चिम के दर्जन भर से ज्यादा अखबारों में नाम कमा चुके हैं। हर शहर में उनकी बस दो ही जरूरतें रहीं हैं, एक बीवी और एक मकान। इस तरह अब तक करोड़ों की नाजायज जायदाद और दर्जन से ज्यादा नाजायज औलाद के विधाता बन चुके हैं। तो भी तरकर की व्यथा-कथा अनंता। दर्दे-दिल ये कि सब कुछ अपने ही डकारते रहे, अपने ऊपर वालों से बेखबर। सो फ्रस्टेशन बढ़ता गया, बढ़ता गया। मुद्दत से सब-एडिटरी। यानी जिंदगी बीती जा रही, हाई स्कूल पास न हुए। जब जोरू-जायदाद खुद ही सब डकार जाओगे तो प्रमोशन-इंक्रीमेंट क्या खाक मिलेगा।

7. लुच्चा पंडित ने पत्रकारिता में कमाई-धमाई का अव्वल आइडिया अख्तियार कर रखा है। साल में सिर्फ दो प्रोग्राम कराते हैं और फूल कर लाल हो जाते हैं, जैसे अमेरिकी सुअर। उनकी एक जुगाड़ मुंबई है। उसके आशीर्वाद से समर सीजन में फिल्म वालों का प्रोग्राम। दूसरा दिल्ली-कलकत्ता में। उसका काम है खेल-खिलाड़ियों के साथ तिग्गी भिड़ाना। सो जाड़े में नेशनल टूर्नामेंट। बस। ना काहू की चुगली, ना काहू की दलाली। पंडी जी का यह डबल गेम उनके ऊपर वालों को लट्टू किए हुए है। कमाई में दस परसेंट ऊपर वालों के बाल-बच्चों के लिए। तुम भी खुश, हम भी खुश। यही सब तरकर जी को नहीं करने आया वरना आज एडिटर की कुर्सी पर होते।

8. सत्येंद्र नरवार तबादले की कौवा हंकनी से परेशान हैं, क्या ससुरा सिर पर पत्तरकारिता का भूत चढ़ा था, इस पेशे में चला आया। इतनी पढ़ाई-लिखाई सब व्यर्थ। लगता है लुच्चा पंडित वाला रास्ता ही धरना पड़ेगा, वरना हर छमाही तबादला। कहां तक झेलें। टाइम आफिस वाले कहते हैं, ऐसा सार्टिफिकेट लेकर अखबार में क्या करने चले आए। यहां तो चुगलुओं का राजपाट चलता है। अरे चोगद जी, बन जाओ चुगलू मादर...च्च्च्च्चो....तुम भी उसकी तरह मजे करोगे। फिर कभी न होगा तबादला। इंक्रीमेंट-प्रमोशन अलग से। समझे बच्चू सतेंदर नरवार!

9. एक जनाब मणिसाना वेज बोर्ड की रिपोर्ट लागू होने की बेकरारी में इतने सस्वर हो उठे कि आजकल रेलवे रोड पर चाय-पान का खोखा चला रहे हैं। मालिक को फूटी आंखों नहीं सुहा रहे थे। निकाल बाहर किया। तेरी ये हिमाकत। यहां लोग अट्ठारह-अट्ठारह घंटे मरा रहे हैं, चूं तक नहीं कर रहे और तू पत्रकार का चोद्दा, दस घंटे काम करके मणिसाना-मणिसाना चिल्ला रहा है....ऐं!!

10. एक और थे। भीतर-ही-भीतर यूनियनबाजी के पर्चे बांट रहे थे। मनीजर बाबू को किसी चुगलू से भनक लग गई। ऐसा संट किया कि आज कल दिल्ली में आईटीओ पर आटो चला रहे हैं। लेकिन हैं बड़ी मस्ती में। अखबार का नाम लेते ही एक सांस में सौ-सौ गालियां धाराप्रवाह ...... मादर.... च्च्चो .... फादर.... च्च्च्चो...... बाहन.... च्च्च्च्चो...... बेटी..... च्च्च्च्चो....

-(सभी नाम काल्पनिक, बाकी सब सही-सही)


(हिंदी पत्रकारिता के पाप का खुलासा करने का बीड़ा उठाया है जेपी नारायण ने। बेहया नामक अपने ब्लाग पर वे लगातार हिंदी पत्रकारिता पर लिख रहे हैं। उन्हीं के ब्लाग बेहया http://behaya.blogspot.com से उपरोक्त तीनों पोस्टें उठायी गई हैं। आप सभी भड़ासियों से अनुरोध है कि उपरोक्त तीनों पोस्टों को गंभीरता से पढ़ें और एक एक लाइन धैर्य के साथ पढ़ें। आपको जरूर लगेगा कि दरअसल ये प्रतीकात्मक कहानियां आपके आसपास की वो कड़वी सच्चाइयां ही हैं जिनसे आप रोजाना की जिंदगी में हमेशा दो-चार होते रहते हैं। जय भड़ास...यशवंत)

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