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11.4.08

ये है दिल्ली नगरिया तू देख बबुआ

भैया जबलपुर से चढ़ कर मैं पहुंचा दिल्ली। रेल्वे स्टेशन से बाहर निकलते ही मेरा तार्रुफ हुआ दिल्ली की तथाकथित लाइफ लाइन मेरा मतलब है ब्लू लाइन से। ऊपर वाले का नाम ले कर चढ़ा तो सही पर दिल अन्दर से धौंकनी की तरह धुकधुका रहा था। धीरे धीरे बस में और लोगों का चढ़ना भी शुरु हुआ तो लगा जैसे पूरी दिल्ली इसी बस में घुस जाएगी। अब हालात यह थे कि बस में पैर रखने को भी जगह नहीं थी। अपने सामने ही आकर खड़ी हुई एक लगभग 40 वर्षीय महिला को खड़ा देख कर मेरे से अपने कस्बाई संस्कार छोड़े नहीं गए और मैं अपनी सीट छोड़ कर खड़ा हो गया। उस महिला ने एक बारगी मुझे देखा और बैठते हुए पूछा कि कहां के रहने वाले हो। मैंने बड़े आश्चर्य से पूछा कि आपको कैसे मालूम कि मैं बाहर से आया हूं। मेरे इस प्रश्न पर उसने मुस्कुराते हुए कहा कि बचपन से दिल्ली में रह रही हूं। मैंने दिल्ली को और यहां के लोगों को दोनो को बदलते हुए देखा है। इतने में एक स्टॉप आया तो चढ़ती हुई भी भीड़ ने मुझे और पीछे की ओर धकेल दिया।
अब मैं चुपचाप खड़ा था तो मैंने अपना मनपसंद कार्य यानि कि लोगों को नोटिस करना शुरू कर दिया। तो देख कि कोई जैसे अपने ऑफिस के सारे टेंशन अपने साथ घर ले जा रहा हो तो कोई अभी से ही घर पहुंच कर बीवी से मिलने वाले टेंशनों की नई फसल को ले कर परेशान लग रहा था। कुछ लोग शराफत का लबादा ओढ़े हुए खड़े ज़रूर थे पर उनकी नज़रें सभी से नज़र चुरा कर बगल की सीट पर बैठी हुई लड़की के वी-नेक गले के अन्दर की खाई के अन्धेरे मे अपने ढलते हुए योवन और पौरुष की खोज कर रहे थे। तो कुछ लोग बैठी हुई अधेड़ औरत के ब्लाऊज़ में से छनते हुए ब्रा को देख कर ही तृप्त हो रहे थे। इतने में बस रुकी और एक झटके में मेरा ये लोगों के मूल्यांकन का सिलसिला टूट गया। नज़र बस के दरवाज़े पर अटक गई। एक सुगढ़ काया वाली सुन्दर लड़की उस दरवाज़े से अन्दर चढ़ गई। नीले सूट में उसका रूप ऐसा लग रहा था जैसे सागर के निर्मल नीले जल के बीच एक सफेद कमल खिला हो। अब तक अपने-अपने कार्यों मे व्यस्त लोगों के बीच मे हलचल हुई। खड़े हुए लोगों ने थोड़ा थोड़ा सरक कर जगह बनाई जिससे वह अन्दर आ सके। परंतु जगह बनाते समय इतनी सावधानी बरती गई कि जगह सिर्फ उतनी ही बने जितने में वह जब गुज़रे तो उन्हें उसके शरीर के अंगों का मात्र स्पर्श ही न मिले बल्कि उसके अंग-प्रत्यंग उनके शरीरों से बाकायदा रगड़ते हुए जाएं। वह लड़की भी शायद इस स्थिति की आदी थी। वह भी अपने शरीर को भवनाशून्य कर के उन लोगों के शरीरों से शरीर को रगड़ते हुए अपने को बस की एक ऐसी जगह तक खींच कर ले गई जहां पर उसे खड़े होने को जगह मिल जाए और जहां उसके शरीर से हो रहा अन्य शरीरों का स्पर्श कम से कम उतना तो कम हो जाए जितने के लिए उसका शरीर अनुकूलित हो चुका है। मैं खड़ा खड़ा उस लड़की को और उसकी स्थिति को एक बिजूके की तरह देख रहा था। थोड़ी देर में मेरी मनःस्थिति को भांप कर उस महिला ने अपनी सीट छोड़ कर उस लड़की को सीट दे दी और खुद उसके पास खड़ी हो गई। उसके बाद वाले स्टॉप पर हम दोनो उतर गए। कुछ देर तक हम दोनो के बीच एक मौन संवाद चला फिर इस मौन को तोड़ कर उस महिला ने कहा कि तुम्हारे लिये यह नई घटना थी इसीलिए तुम्हे शायद बुरा लग रहा हो पर यहां ये सब आम बात है। मैं भी चुप था पर मैने बस इतना ही कहा कि ये चाहे कस्बाई मानसिकता हो या मेरा पिछड़ापन पर मैं तो बस यही मानता हूं कि शरीर की रगड़ से बच्चे तो पैदा किए जा सकते हैं परंतु रिश्ते नहीं। बह महिला मेरी इस बात पर कुछ न कह पाई और हम दोनो ने एक दूसरे को अलविदा कह कर अपने-अपने रास्ते की ओर रुख कर लिया।

3 comments:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

विकास भाई, सत्य है कि शरीर की रगड़ से औलाद पैदा हो सकती है रिश्ते नहीं इसलिये अगर रिश्ते पैदा करने हों तो विचार करना चाहिये कि क्या रगड़ा जाना सही होगा.......

Unknown said...

vikas bhaee tum to darsnik lgte ho guru...

Ankit Mathur said...

काफ़ी उत्कृष्ट कोटि का विश्लेषण किया है
आपने दिल्ली के लोगो के लिए आम हो चली
बातों का।