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5.4.08

प्रताप सोमवंशी kee kavitaen

1.छत पे सोया था बेखबर कोई

छत पे सोया था बेखबर कोई
लूट कर ले गया है घर कोई



तुम जो मिम्बर से चीखे जाते है
उसका होता नहीं असर कोई



शाम लौटा वो घर तो ये बोला
इतना आसां न था सफर कोई



पेट था, पांव थे औ गरदन थी
अंजुमन में नहीं था सर कोई



सुबह से शाम झूठ और धोखा
तुमको लगता नहीं है डर कोई

2.सरासर झूठ बोले जा रहा है

सरासर झूठ बोले जा रहा है
हुंकारी भी अलग भरवा रहा है



ये बंदर नाचता बस दो मिनट है
ज्यादा पेट ही दिखला रहा है



दलालों ने भी ये नारा लगाया
हमारा मुल्क बेचा जा रहा है



मैं उस बच्चे पे हंसता भी न कैसे
धंसा कर आंख जो डरवा रहा है



तुझे तो ब्याज की चिन्ता नही है
है जिसका मूल वो शरमा रहा है



सुना है आजकल तेरे शहर में
जो सच्चा है वही घबरा रहा है

3.कुछ जिस्म तो कुछ उसमें

कुछ जिस्म तो कुछ उसमें हुनर ढूढ़ रहे थे
हम आंख में नीयत का असर ढूढ़ रहे थे



सब पूछ रहे थे कि वजह मौत की क्या थी
हम लाश की आंखों में सफर ढूढ़ रहे थे



उस मोड़ से होकर तुझे जाना ही नहीं था
पागल थे जो ता-उम्र उधर ढू़ढ रहे थे



बच्चे जो हों परदेस तो पूछो न उनका हाल
तिनका भी गिरे तो वे खबर ढूंढ रहे थे



इस दौर ने हर चेहरे पे बेचैनियां लिख दीं
इक उम्र से सब अपना ही घर ढूढ़ रहे थे

4. गमछे बिछा के सो गईं
गमछे बिछा के सो गईं घर की जरूरतें
जागे तो साथ हो गईं घर की जरूरतें



रोटी के लिए उसका जुनूं दब के मर गया
बचपन में ही डुबो गई घर की जरूरतें



जिन बेटियों को बोझ समझता था उम्र भर
कांधों पे अपने ढो गईं घर की जरूरतें



उस दिन हम अपने आप पे काबू न रख सके
जिस दिन लिपट के रो गईं घर की जरूरतें



उनमें हुनर बहुत था और हौसला भी था
देहरी में जाके खो गईं घर की जरूरतें


(अमर उजाला, कानपुर के संपादक प्रताप सोमवंशी संवेदनशील कवि हैं। जन्म: 20 दिसंबर 1968 , जन्म स्थान जिला प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश, भारत , आपकी कविताओं का कन्नड़, बांग्ला, उर्दू में अनुवाद हो चुका है। )

2 comments:

Anonymous said...

bahut achchhi kavitaen....

बीहड़ said...

ब्लॉग पर पहली बार आपको पढ़ रहा हूं। इतने साल आपके साथ काम करने के बाद भी नहीं जान सका कि आप इतने संवेदनशील और बेहतर गजलगो हैं। उम्मीद है कि नई रचनाओं को पढ़ता रहूंगा। साथ ही उम्मीद करता हूं कि मेरा ब्लॉग भी देखें।