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7.6.08

हम कहां जाएं


हास्य-गजल
छुपे हैं चोर थाने में पकड़ने हम कहां जाएं
दरोगा बन गया साला अकड़ने हम कहां जाएं
पलस्तर चढ़ गया पक्का हमारे दोनों हाथों में
टंकी है नाक पर मक्खी रगड़ने हम कहां जाएं
लगा है शौक पढ़ने का हमें यारो बुढ़ापे में
बंधी भैंसें मदरसे में तो पढ़ने हम कहां जाएं
खुजाकर सिर किया गंजा ना आई बात भेजे में
लिया है जन्म अगड़ों में पिछड़ने हम कहां जाएं
ना बिजली है ना पानी है ना सीबर है ना सड़के हैं
बसाया घर है यू.पी में उजड़ने हम कहां जाएं
कटे हैं सीरियल में दिन गुजारी रात फिल्मों में
जो नीरव घर में हो टी.वी. बिगड़ने हम कहां जाएं
पं. सुरेश नीरव
मो.९८१०२४३९६६
(भाई हृदयेन्द्र प्रताप सिंह, ने अपनी टिप्पणी में मेरा जो जिक्र किया उसे पढ़कर गोमांगो खुश हुआ। भाई रजनीश के.झा और मृगेन्द्र मकबूल जो समय निकालकर मेरी गजल से रू-ब-रू हुए उनका शुक्रिया। और श्रीयुत शशिभुद्दीन थानेदार आपके रोजनामचे रजिस्टर के लिए ये नई गजल..।)

2 comments:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

बचाओ....बचाओ... अरे कोई तो बचाओ...
पंडित जी ने देखो तो जरा क्या लिख दिया है---
बंधी भैंसें मदरसे में तो पढ़ने हम कहां जाएं
........... अरे कठमुल्ले लोग हंसेंगे नहीं साले इस बात की पूंछ का बाल पकड़ कर फतवा जारी कर देंगे कि इस काव्यमुखी दलित ब्राह्मण के पकड़ कर लाओ और जीवन भर कविता न लिखने दो......

Anonymous said...

कटे हैं सीरियल में दिन गुजारी रात फिल्मों में
जो हम हैं भडासी तो बिगड़ने हम कहाँ जाएं....

पंडित जी,
प्रणाम.
आपके लिए मेरी एक तुकबंदी, आपके शानदार हास्य ने जीवन को रसीला कर दिया है सोच रहे हैं हम भी मदरसे से भैंस चारा आयें ;-)
जय जय भडास