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8.6.08

शब्दों को खाता बाजार

बाजार की ताकत केवल व्यक्ति को ही नहीं बदलती है,शब्दों को भी खा जाती है। यह ताकत केवल उपभोक्ता सोच को नियंत्रित करत है ऐसा नहीं है। इससे न केवल सामाजिक चेतना डोलती है बल्कि कई मामलों में यह बदलाव भाषा के स्तर पर भी होता है। बाजार की ताकत शब्दों को भी कमजोर करने की साजिश रचती है।कल तक एक शब्द मध्यम और निम्न वर्ग के घर-घर में बोला जाता था। वह था लट्टू, बल्ब। सीएलएफ की ताकत के सामने आज यह शब्द निस्तेज हो गया है हो रहा है। आमतौर पर अब यह शब्द बहुत कम सुनने को मिलता है। उस मध्यम वर्ग के मुंह से भी नहीं जिसके घर के अंधेरे को दूर करने के लिए यह लंबे समय तक उजाले का प्रतिनिधि रहा। बाजार की ताकत मैं यह शब्द धीरे-धीरे खो रहा है। ठीक वैसे ही जैसे कभी चवन्नी खोई थी। हाल ही में अठन्नी ने अपना दाम खो दिया है। तो केवल शब्दों को ही नहीं मुद्रा का मूल्य बाजार का जाता है। इसे क्रिया को कई बार स्थानीय कारोबारी भी नियंत्रित या फिर अवमूल्यित करते हैं लेकिन शब्दों के मामले में यह किसकी साजिश है। जाहिर है कि बाजार की ताकत से व्यक्ति, समाज और संस्था ही नहीं शब्दों को भी खतरा है।

3 comments:

Suresh Gupta said...

सही कहा आप ने. बहुत दिलचस्प लगा आप का लेख. अगर शब्द ने अपनी ताकत या पहचान खोई है तो उस के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं. एक पंक्ति - बना दिया बाज़ार राष्ट्र को भूल गए अपना इतिहास.

Anonymous said...

भैये योगेश,
बाजार का सुक्रिया अदा करो की जेब में चवन्नी अठन्नी जा रहा है, शब्दों के संसार को बाजार ने लील लिया है मगर इसी बाजार ने जीविका का साधन भी दिया है सो बाजार को सलाम करो और खुश रहो.
जय जय भडास

बीहड़ said...

झा साहब,
आप किस रोजगार की बात कर रहे हैं। बाजार ने तो गरीबों के रोजगार पर लात ही मारी है। कुटीर उद्योगों का सत्यानाश किया है और किसान को बरबाद। अगर आप पत्रकारिता के रोजगार की बात कर रहे हैं तो बिल्डरों की गुलामी पर आप खुश होइएगा। इस खुशी के लिए मेरे पास समय नहीं।
जय-जय बीहड़