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5.6.08

कई ब्लागरों के लिए यह एक ऐसा धोबीघाट है जहां बैठकर अपने घर से लेकर गली-मोहल्ले तक की तमाम मैली चादरों को धोया और सुखाया जा सकता है।

अमिताभ बच्चन, शाहरुख खान, आमिर खान और उदय सहाय में क्या समानता है - जवाब है कि यह सब ब्लागर्स हैं। यह दुनिया के उन करीब 3 करोड़ लोगों में से एक हैं जिन्होंने अपने-अपने मंच बना लिए हैं। अपने कद और रुतबे के हिसाब से किसी के ब्लाग पर एक दिन में हजारों हिट्स आते हैं तो किसी के ब्लाग पर गिनती के कुछ। लेकिन यह सभी लोग उस नई पत्रकारिता को आत्मसात कर रहे हैं जो उन्हें बिना शर्त आत्माभिव्यक्ति का खुला आमंत्रण देती हैं।11 सितंबर 2001 की घटना ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भले ही आतंकवाद से जुड़े सरोकारों पर गहरे सवालों की झड़ी लगा दी हो लेकिन इस घटना ने एक नए पन्ने पर एक खास लिखावट उकेर दी जिसने आंखों देखी रिपोर्टिंग की एक नई मिसाल कायम कर दुनिया के सामने एक नए दरवाजे खोल दिए। दुनियाभर के दर्शकों को जब टिवन टावर पर टीवी पर हमले की लाइव फुटेज देखने को मिली तो वे यह जानने के लिए भी उत्सुक हुए कि यह सब क्यों, कैसे और किसके जरिए हुआ। भारतीय तो वैसे भी उस समय तक ब्रेकिंग न्यूज के आदी बन ही गए थे। जाहिर है उनकी प्यास तो औरों से भी ज्यादा थी। लेकिन अमेरिका में बैठे अंकल सैम के मीडिया कंट्रोल के चलते सब कुछ तुरंत-फुरंत में मिलने वाला नहीं। पूरी दुनिया में मीडिया का राजनैतिक अर्थशास्त्र कुछ ऐसा था कि चारों तरफ सिर्फ मैकडोनाल्ड की आवाज ही बुलंद थी। स्वाभाविक तौर टीवी पर जानकारी का वैसा उफान नहीं आया जिसकी आशा थी। ऐसे में ब्लागर्स की एक नई फसल उगी जिसने खुलकर अपनी बातें कहीं, बहुत सी आंखों देखी आपस में बांटी और लोगों को बताया-दिखाया कि घटना के समय और घटना के बाद अमरीकी गली-मोहल्लों में क्या हुआ। ये लोग स्थानीय पत्रकारों की तरह अपनी बात कहने लगे। इन लोगों ने महाभारत के संजय की भूमिका निभाई और उस वक्त की जिंदा तस्वीर को जानने को बेताब लोगों के सामने एक प्रत्यक्षदर्शी का बेजोड़ काम किया। उस वक्त चैनलों के रिमोट को खरगोश की तरह यहां-वहां घुमा रहे लोगों की नजर एकाएक ब्लाग की दुनिया पर ऐसी गई कि आज भी कायम है। यह प्यास आज कई गुना बढ़ चली है। लगता है कि जैसे पत्रकारिता की कमान इन्हीं ब्लागर्स के हाथों में आ गई हो। इस एक अनुभव ने मीडिया के सामने ब्लाग की नई पौध भी रखी और चुनौतियां भी क्योंकि टीवी और प्रिंट के लिए शुरु में यह किसी छोटी लेकिन नई प्रतियोगिता से कम तो नहीं ही था।इसी तरह सुनामी आने पर ब्लागरों की एक जमात के जाग जाने पर खुद सरकार को सही जगहों तक राहत पहुंचाने में काफी मदद मिली। इराक युद्ध के समय बगदाद से एक ब्लाग में रोज की घटनाओं पर साफगोई से लेखन हुआ। जाहिर है अमरीका ऐसा कभी नहीं करता। किसी ऐसे इलाके जहां लोग भुगत रहे हों, वहां का ब्लाग सच को काफी हद तक सच के आस-पास रख कर जब अपनी बात कहता है तो उसका असर तो पड़ता ही है। वैसे भी एक ऐसे दौर में जब कि खुद पत्रकारों का बौराए टीवी मीडिया से विश्वास रफूचक्कर होना शुरु हो गया है, ब्लाग तपी जमीन को कुछ ठंढक देने का काम तो कर ही रहा है।लेकिन इस सबके साथ ही कई सवाल भी उपजते हैं। एक बड़ा सवाल सामने आता है- क्या ब्लागिंग पत्रकारिता है या फिर अपना गुस्सा बाहर लाने का महज एक तरीका भर? काफी हद तक दोनों ही बातें सही हो सकती हैं या यूं मानिए कि यह इस्तेमाल करने वाले पर निर्भर करता है।लेकिन इतना जरुर है कि ब्लागिंग की इस नई कबड्डी ने सूचना युग को एक ऐसी सड़क तक तो पहुंचा ही दिया है जहां पत्रकार बनने की छूट सभी को होगी। लेकिन यहां यह समझना बहुत जरुरी है कि इस छूट का मतलब यह नहीं है कि इस मैदान में उतरते ही सब पत्रकार भी बन ही जाएंगे। हरेक ब्लागर को पत्रकार मान लेना बिल्कुल वैसा ही होगा जैसे कि कभी जन्मदिन पर एकाध फोटो खींचने वाले को फोटोग्राफर मान लिया जाए। बेशक ब्लागरों के नई जमात टीवी के सताए और उसके करतबों से थके लोगों को एक राहत जरुर देती है लेकिन यह भी मानना होगा कि ब्लागरों में एक बड़ी जमात ऐसे लोगों की है जो वस्तुनिष्ठ, गंभीर, तथ्यपरक और निष्पक्ष पत्रकारिता का मतलब भी नहीं जानते। कई ब्लागरों के यह एक ऐसा धोबीघाट है जहां बैठकर अपने घर से लेकर गली-मोहल्ले तक की तमाम मैली चादरों को धोया और सुखाया जा सकता है। ऐसे में सभी ब्लागरों के 'ज्ञान-उवाचों' को ज्यों के त्यों मान लेना बेवकूफी ही होगी। मीडिया के सामने आज एक चुनौती है कि वह ब्लाग की विश्सनीयता का मापदंड बनाए ताकि सार्थक और निरर्थक ब्लागों में अंतर किया जा सके।पर तस्वीर का एक रुख यह भी दिखता है कि दुनिया भर के नव साक्षरों तक के लिए यह एक अनूठी प्रयोगशाला भी है। ऐसा भला और कौन सा माध्यम है जहां आदमी बिना कोई बड़ी पूजी खर्च किए किसी भी बड़ी हस्ती के साथ कंधा जोड़ कर खड़ा हो जाए?बेशक पत्रकारिता के मैदान में ब्लागिंग एक खलबली की तरह है। एक ऐसी खलबली जिसकी लत देश-समाज-दीन-दुनिया-सभी के लिए नई आहट हो सकती है, बशर्ते उसके इस्तेमाल में वही जल्दबाजी न की जाए जो इलेक्ट्रानिक मीडिया के साथ की गई।
साभार-http://udaysahaymakingnews.blogspot.com/


(उदय सहाय जाने-माने लेखक और प्रशासक हैं )

1 comment:

Anonymous said...

हरे ददा,

सही कहा है सहाय जी ने वैसै सच कहो तो कुछ ब्लोगरों के लिये ये धोबी घाट के अलावे कुछ ओर भी है......दुसरों की चादर पर जा के गन्दगी करना ओर ये हम सब ने देखा है याद ताजा है।

जय जय भडास