Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

14.6.08

अनिल यादव का ब्लाग हारमोनियम, उनकी पहली पोस्ट ललमुंही विदेशिन व बुढ़िया के गुत्थमगुत्था होने पर

हारमोनियम मेरे लिए खास ब्लाग है। हालांकि यह ब्लाग अभी बना ही बना है। इसमें सिर्फ बोहनी वाली एकमात्र पोस्ट पड़ी है। और उस इकलौती पोस्ट को चुराकर भड़ास पर डाल रहा हूं। खास ब्लाग इसलिए कि इस ब्लाग को जिसने शुरू किया है, वो मेरे रोल माडल की तरह हैं। नाम है अनिल यादव। इन दिनों लखनऊ में द पायनियर अखबार में हैं।

इससे पहले वे दैनिक हिंदुस्तान वाराणसी, अमर उजाला लखनऊ, दैनिक जागरण लखनऊ, अमर उजाला मेरठ, अमर उजाला नोएडा आदि जगहों पर कार्य कर चुके हैं। मैं जब बीएचयू से पत्रकारिता का कोर्स कंप्लीट कर और छात्र राजनीति से भागकर लखनऊ पहुंचा तो राज्य की राजधानी लखनऊ में मेरा कोई ऐसा परिचित नहीं था जिसके यहां रुक सकूं और नौकरी खोजने के लिए संघर्ष कर सकूं। अनिल यादव से हलकी सी मुलाकात और छोटा सा परिचय था। वे अपने छोटे भाई कामरेड सुनील यादव के बीएचयू में छात्रसंघ के अध्यक्षी चुनाव में प्रचार के लिए कुछ दिनों के लिए आए थे। उस दौरान मैं उनके संपर्क में आया। उनसे काफी प्रभावित हुआ।

आइसा से भागकर जब लखनऊ पहुंचा तो सीधे अनिल के यहां पहुंचा। उसके बाद अगले साल भर तक निश्चिंत भाव से बेरोजगार और कभी कभार मौसमी रोजगारशुदा होने के बावजूद अनिल के घर पर रहकर और उनके पैसे पर हर रोज होली-दीवाली मनाता रहा। ढेर सारे खट्टे-मीठे पल गुजरे और मैं हर पल को संपूर्णता में जीने/सहेजने/सीखने की कोशिश करता रहा।

अगर मुझसे पूछा जाय कि किसी एक व्यकित का नाम बताओ जिसके प्रति तुम ताज़िंदगी कृतज्ञता ज्ञापित करना चाहते हो तो मैं अनिल यादव का नाम लूंगा। हालांकि मुझे पता है कि अनिल भाया और शिल्पी माते पिछले कई महीनों, नहीं, बल्कि वर्षों से मुझसे नाराज चल रहे हैं लेकिन उनकी नाराजगी अपनी जगह और मेरा प्यार अपनी जगह।

पत्रकारिता से लेकर जीवन के हर पल में अति ईमानदारी और पूर्ण सचेत संवेदना के साथ जीने की कोशिश करने वाले अनिल के लिखे को हमेशा सराहना मिली क्योंकि वे जो लिखते हैं उसमें कोई बनावटीपन नहीं बल्कि सब कुछ संपूर्ण लाइव और बेहद ओरीजनल-रीयलिस्टिक होता है और इस रीयलिज्म में भी एक विजन व एक सचेत समझ दिखती रहती है।

यकीं न हो तो उनका लिखा नीचे वाला पढ़ लीजिए।

ब्लागिंग में अनिल के आने पर हम सब बेहद उत्साहित हैं और भड़ास उनका तहेदिल से स्वागत करता है।

ब्लाग बनाने के बाद अनिल ने एक छोटी सी मेल वाली चिट्ठी भी भेजी है, जो इस प्रकार है....

introduction ceremony

anil yadav (oopsanil@gmail.com)

like other blogs there is a new one named URL-

http://iharmonium.blogspot.com-
please attach it and introduce to rest of thedunia and enjoy hearing a new tune on harmunia.

anilyadav
lucknow


अपने ब्लाग पर उन्होंने जो खुद की प्रोफाइल बनाई है, उसमें उनके बारे में जो तीन चार जानकारियां हैं, उनमें से दो इस प्रकार हैं....

Interests- Absorbing what ever is all around.
Favorite Music- traffic tunes (unedited)

अनिल के ब्लाग को पहली नजर में देखने पर अभी कई तकनीकी कमियां दिख रहीं हैं। जैसे वहां अभी कमेंट करने वाला आप्शन दिया ही नहीं गया है। मतलब, अनिल के ब्लागिंग में आने का कोई स्वागत करे तो किस तरह करे, कोई उनके लिखे पर उन्हें गरियाना या सराहना चाहे तो किस तरह करे।

उम्मीद है, वे ये तकनीकी चीजें आज नहीं तो कल सीख लेंगे, पर हम लोगों के लिए सबसे जरूरी है उनका ब्लागिंग में लगातार सक्रिय रहना और कुछ न कुछ लिखते रहना। उम्मीद है हमेशा की तरह उनके लिखे का फैन क्लब हिंदी ब्लागिंग में भी बनेगा।

तो चलिए, पेश है उनके ब्लाग हारमोनियम से साभार,
उनकी पहली ब्लाग पोस्ट.....

यशवंत
-------------- -------------------- ------------------ ----------


क्या ललमुंही विदेशिन से गुत्थमगुत्था बुढ़िया पर अब भी हंसा जा सकता है?


- अनिल यादव-
---------------

दिन, उस छोटी सी खबर और उससे भी ज्यादा साथ छपी फोटू ने गुदगुदाया। सारनाथ गई एक घुमक्क़ड़ विदेशी युवती ने सड़क की पटरी पर बैठी बुढ़िया से दो रूपए का गाजर खरीदा और स्कूली लड़कों जैसे खिलवाड़ भाव से बिना पैसा दिए जाने लगी। हो सकता है कि युवती को उसमें अपने बचपन की कोई रिगौनी आंटी नजर आ गई हो। लेकिन उस देहातिन को जैसे आग लग गई और वह दौड़कर उस युवती से जूझ गई। युवती को वाकई मजा आ गया, शायद एक गंवई हिन्दुस्तानिन से पहली बार अनायास वास्तविक संवाद स्थापित हो गया था। पुलिस के सिपाहियों और देसी लहकटों को वह रोज झेलती होगी लेकिन उसे बर्दाश्त नहीं था कि कोई ललमुंही विदेशिन उसे उल्लू बनाकर दांताखिलखिल करती हुई चली जाए।

इसी बीच गाजर भारत-यूरोप के बीच पुल बन चुका था। फोटू में खड़े युवती के साथी का चेहरा कुछ ऐसा प्रफुल्ल था, जैसे सारनाथ के परदे पर कोई ओरियंटल फिल्म देख रहा हो। उसके आराम से खड़े होने के पीछे का आत्मविश्वास रहा होगा कि वह बुढिया, बैलेंस डाइट पर पली, दिन भर उसके साथ पैदल भारत नापने वाली उसकी छरहरी साथिन का क्या बिगाड़ पाएगी? बाई द वे यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि इस युगल को यह घटना जिंदगी भर याद रहेगी। इसमें हाऊ डू यू फील अबाउट बेनारस जैसी रस्मी बोरियत नहीं थी। तंत्र, मंत्र, योगा और होली गंगा का फंदा नहीं था। इसमें खांटी भारतपन था जिसे वे अपने देश जाकर लोगों को बताएंगे।

तो अखबार में छपी फोटू में परमआधुनिक यूरोप के साथ एक भारतीय देहातिन भिड़ी हुई थी। कल्पना में न समाने वाला यह पैराडाक्स लोगों को गुदगुदा रहा था। लेकिन गाजर वाली के लिए यह झूमाझटकी कोई खिलवाड़ नहीं थी। ललमुंही विदेशिन के लिए दो रूपए का मतलब कुछ सेंट या पेंस होगा लेकिन गाजरवाली के लिए इसका मतलब है। कुप्पी में डाले गए दो रूपए के तेल से कई रात घर में रोशनी रहती है।
दस-बीस के सिक्के चलन से बाहर हो गए हैं फिर भी गाजर का कुछ सेंटीमीटर का पुल पारकर आप उन लोगों की अर्थव्यवस्था में झांक सकते हैं जो हमारे बहुत करीब रहते हुए भी आमतौर पर हमें नजर नहीं आते। मिर्जापुर, सोनभद्र से लाकर महुए के पत्तों के बंडल पान की दुकानों पर बेचने वाले मुसहरों को पत्ता पीछे एक पैसे की आमदनी होती है। रेलवे स्टेशन पर नीम की दातुन बेचने वालों को एक छरका एक रूपए में पड़ता है और वे एक चार टुकड़े कर के आठ-आठ आने में बेचते हैं। चने का होरहा या मौसमी तरकारियां बेचने वालों को देर रात तक सड़कों पर ऐसे ग्राहकों का इंतजार रहता है जो दो रूपया कम ही देकर उनकी परात या खंचिया खाली कर दें। लोग चिप्स का पैकेट बिना दाम पूछे खरीद लेते हैं लेकिन उनसे इस अंदाज में मोल भाव करते हैं जैसे वे उन्हें ठगने के लिए ही आधीरात को सड़क पर घात लगाकर बैठे हों।

चूरन, चनामुरमुरा, गुब्बारे, फिरकी और प्लास्टिक के फूल बेचने वाले दस बीस रूपए की आमदनी के लिए सारा दिन गलियों में पैदल चलते रहते हैं। बनारस में अब भी पियरवा मिट्टी के ढेले बिकते हैं, जिन्हें शहनाज हुसैन सबसे बेहतरीन हेयर कंडीशनर बताती हैं। इन्हें बेचने-खरीदने वाले दोनों के लिए दो रूपया रकम है।

अभी मार्च के आखिरी हफ्ते में आयकर-रिटर्न भरने में सारा देश पसीना-पसीना हो रहा था। तरह-तरह के खानों वाले ठस सरकारी कागजों का अंबार था और कर विशेषग्यों की चौर्य-कला से विकसित देसी तिकड़में थी। जो चख-चख थी उसका सार यह था कि सरकार बड़ा अत्याचार कर रही है, यदि कोई ईमानदारी से इनकम-टैक्स भर तो भूखों मरेगा और उसके बच्चे भीख मांगेगे। लिहाजा बीमा के प्रीमियम, धर्माथ चंदे और मकान किराए की फर्जी रसीदों, एनएससी वगैरा के जुगाड़ं फिट किए गए ताकि अपना पैसा अपने पास रहे। .यहां कुछ हजार का सवाल था और सारनाथ की गाजरवाली के सामने अदद दो रुपयों का। क्या ललमुंही विदेशिन से गुत्थमगुत्था बुढ़िया पर अब भी हंसा जा सकता है। अगर आयकर विभाग को झांसा देकर कुछ हजार बचा लेने वाले बाबुओं और सड़क किनारे बैठी बुढ़िया के बीच खरीद-बेच के अलावा कोई और रिश्ता बचा हुआ है तो नहीं हंसा जाएगा।
वाकई, क्या ऐसा कोई रिश्ता है?

साभारः हारमोनियम

2 comments:

Unknown said...

अबे थैक्यू। लेकिन चैनल बदल दो इ प्राइवेट वाला है। इ का पोस्टवै उड़ा दिया, कैसे किया?

Anonymous said...

अनिल भाई,

आपका बलोगियाना दुनियां मे तहे दिल से स्वागत है संग ही भडास पर भी, अब तो नि:संदेह आपके रोचक ओर जानकरीदार लेखनी से हम सब रु ब रु होते रहेंगे। दद्दा की भी पोल पट्टी खोलना कुछ हम भी दद्दा के चुटकुले ले लें ;-)

जय जय भडास