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6.7.08

विकासवाद के विरूद्ध

प्रणाम करने की मुद्रा में वे इतना झुके कि
देखते ही देखते
गायब होने लगी
रीढ की हड्डी
पार्श्व में उभरने लगी एक दुम
वक्त बेवक्त मालिकों के आगे हिलाने के लिये
कान फैलकर लंबे हो गये
सिर्फ चुगली सुनने के लिये
नाखून पैने हो गये
हाथ पंजों में बदल गये
पर अजीब बात की कटोरा फिर भी सलामत रहा
आत्मा नाम की चीज का पता नहीं क्या होता
अच्छा हुआ कि वह पहले से गायब थी
कण्ठ से वाणी छिन गयी
रह गयी सिर्फ कुकुआने की आवाज
हां साहब
यस सर
जी हुजूर
बोलिये माइबाप
जुबान पर धार नहीं रही
लपलपाने लगी जीभ सिर्फ मुफ्त के माल पर
हक की रोटी में भला स्वाद कहां से आता
जब बिना लडे सहज ही मिलने लगी
जूठन में बोटियां
फेंकी हुई हड्डियों के चंद टुकडों के लिये
अपनी ही बिरादरी पर गुर्राने वालो
तुम्हारी शक्लें तो मनुष्यों सी है
पर सच सच बताना
असल में तुम्हारी नस्ल क्या है

दिनेश चौधरी

2 comments:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

चौधरी जी,धांसू है जोरदार है धारदार है धुंआधार है कुल मिला कर भयंकर भड़ासदार है;लैमार्क और डार्विन अगर आपकी रचना पढ़ पाते तो साले अपना सिद्धांत ही वापस ले लेते.....
जय जय भड़ास

Anonymous said...

वैज्ञानिकों को क्यों गरिया रहें हैं?