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21.8.08

बोलो रोज़गार गांरटी की जय...

पिछले दिनों राजस्थान जाने का अवसर प्राप्त हुआ। ये मेरा तीसरा ट्रीप था। लेकिन इस बार कोई सम्मेलन, सेमीनार या सिम्पोज़ियम नहीं बल्कि ‘सोशल ऑडिट (सामाजिक अंकेक्षण) का कार्यक्रम था। जिसका निमंत्रण ब्यावर शहर के ‘राष्ट्रीय युवा सम्मेलन’’ में ही मेरी नानी मतलब मैग्सेसे अवार्ड विजेता ‘अरूणा राय’ ने दे दिया था। ‘सोशल ऑडिट 'शब्द मेरे लिए बिल्कुल नया था। न जाने क्यूँ वहां जाने के प्रति मेरी उत्सुक्ता बढ़ती गई, बल्कि मैने अपने कई दोस्तों को साथ चलने का निमंत्रण तक दे डाला, पर कोई फायदा नहीं हुआ।
आखि़रकार बहुत सारी व्यस्तता के बावजूद देहरादून एक्सप्रेस से कोटा हाज़िर था। फिर वहां से झालावाड़ ज़िले के मनोहर थाना इलाके में जाने के लिए बस में सवार हो चला। राजस्थान के लोगों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता और पहाड़ों के मनोहर दृश्य मुझे सोचने को मजबूर कर रहे थे।
अब कुछ ही घंटों के बाद ‘हिन्दू राष्ट्र का हिन्दू गांव’ हमारा स्वागत कर रहा था।अब मैं मनोहर थाना के अग्रवाल धर्मशाला में था, जहां गांव के गरीब लोग व सामाजिक कार्यकर्ता बड़े ही निराले अंदाज में ‘राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी एक्ट’ (नरेगा) के दो वर्ष पूरे होने का जश्न मना रहे थे। फिज़ा में ‘‘आपा! पंचायत में चलह..... बोलो रोज़गार गांरटी की जय...’’ की सदा गुंज रही थी।
दरअसल, गांवों में गरीबों की दयनीय दुर्दशा एक खुला सत्य है। सरकार द्वारा ‘इंडिया शाईनिंग’ की बात तो की जाती रही, लेकिन गांव में बसने वाले ‘भारतीयों’ के लिए कोई ठोस क़दम नहीं उठाया गया। ऐसे समय में जब किसान आत्महत्याएं कर रहे थे, नवजवान भूखमरी के शिकार हो रहे थे, तो एक ‘‘कानून’’ ने देश के इन सबसे गरीब व उपेक्षित लोगों के दिलों में उम्मीद की एक किरन जगाई और वो किरण है ‘एन।आर।ई।जी.ए.’ जिसे प्यार से लोग ‘नरेगा’ कहते हंै।अगर देखा जाए तो ‘रोज़गार गारंटी क़ानून’ की मांग लगातार अकाल से जूझते राजस्थान (जहां लगभग 94 फीसद जनसंख्या गांवों में रहती है) के जनसंगठनों ने ‘‘ हर हाथ को काम और काम का पूरा दाम’’ नारे के ज़रिए उठाई और राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचाया। खैर, अब इस क़ानून को देश के लगभग सभी ज़िलों में लागू कर दिया गया है।ये बात सच है कि ग्रामीण भारत की तस्वीर बदलने के लिए पारित यह क़ानून अब तक ग्रामीण भारत की तस्वीर तो न बदल सकी, पर पंचायत के सरपंचों ने अपनी तक़दीर व तस्वीर ज़रूर बदल ली है। झालावाड़ में हुए इस ‘सोशल ऑडिट' द्वारा भ्रष्टाचार के बहुत सारे तत्व उजागर हुए। पहले तो सूचना देने में आनाकानी की गई, धरना दिए जाने पर दबाव में आकर आधी-अधूरी सूचना उपलब्ध कराई गई और फिर उन्हें लगा कि इस सूचना से भी हमारे बहुत सारे घोटाले उजागर हो सकते हैं तो ‘अभियान’ के लोगों को बुरी तरह से पीटकर गांव से भगाने की कवायद अपनाई गई। घोटाले हज़ारों में नहीं बल्कि लाखों व करोड़ों में थे।राजस्थान सरकार द्वारा झालावाड़ जिलें में लगभग सौ करोड़ रूपये खर्च किये जाने के बावजूद लोगों से जाब कार्ड बनाने हेतु 70 से 500 रूपये रिश्वत लिए गए। जातिगत भेदभाव काफी देखने को मिले। दलितों को यहां भी नज़र अंदाज़ किया गया। कहीं भी हो रहे कामों के बोर्ड देखने को नहीं मिले, मरे हुए लोग भी काम में लगे हुए हैं। मास्टर रोल में फर्जी नाम हैं, यहां तक कि मटकियों को खरीदनें में भी घोटाला किया गया, बल्कि सच पूछें तो कहीं भी मटकीयां थी ही नहीं। कराए गए कामों की गुणवत्ता ऐसी थी कि उंगली लगाने मात्र से सिमेंट गिर जाए। यही नहीं, गांवों में कई कच्चे चेकडेम बने, पर अधिकांश चोरी हो गए हैं। सबसे दिलचस्प बात यह है कि एक ही जगह तीन-तीन तालाब खोदे गए और तालाब के नाम पर पेड़ तक काटना मुनासिब समझा गया।लेकिन ये बात भी सच है कि लोगों को काफी काम भी मिला है। कुछ हद तक बेरोज़गारी कम हुई है। गांव से पलायन रूकी है। मजदूरी की रेट बढ़ी है। ब्लाॅक आॅफिस से मिली जानकारी के अनुसार अप्रैल-दिसम्बर 2007 में मनोहर थाना में 39,532 लोगों को जाॅब कार्ड जारी किए गए, जिनमें 65 फीसद महिलाएं है, यानी महिलाओं की भी भगीदारी बढ़ी है। यही नहीं 26 फीसद परिवारों को 100 दिन काम भी मिले। और अब डाकघर व बैंकों में इनके खाते खुल जाने पर बिचैलिए द्वारा पैसा हड़प लेने का मामला भी खत्म हो सकेगा।ऐसे में यह कानून गरीबी हटाने, अपने गांव की विकास और क्षेत्र की अर्थव्यवस्था मजबूत करने के लिए एक जीवदान है। बस जरूरत इस बात की है कि हकों को हासिल करने के लिए जन-निगरानी को लामबन्दी के एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करें। जन नियंत्रण के ऐसे संघर्षो के जरिए भ्रष्टाचार से लड़ना एक प्रबंधकीय’ प्रक्रिया की बजाय, एक ‘राजनीतिक’ प्रक्रिया का अंग हो सकता है ताकि ‘नरेगा’ सच में ग्रामीण भारत में गरीबी सांमतवाद और शोषण से लड़ने के एक साधन के रूप में विकसित हो।

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