Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

3.9.08

सब बंद, तो जुबान बंद

वाम मोर्चे के बंद के आह्वान पर पश्चिम बंगाल में रफ्तार थम सी गई। हर तरफ बंद और सिर्फ बंद। इस बंद के बीच भी कुछ बंद नहीं हुआ, तो वह थी मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की जु़बान। बोले, यही गलती कर बैठे। जब बंद है तो जु़बान खोलने का क्या मतलब? सूबे में काडरों की पैरेलल सरकार ने सूबे के मुखिया की ज़ुबान ऐसी बंद की है कि अब तक चुप्पी साध रखी है। बंद का दबी ज़ुबान में विरोध करना भट्टाचार्य की संजी़दगी है। विकास के लिए गंभीर मुख्यमंत्री चाहते हैं कि राज्य में विदेशी और औद्योगिक निवेश में इज़ाफा हो, लेकिन कम्युनिस्टों के पूर्वाग्रहों के चलते ऐसा नहीं हो पा रहा है। चीन को अपना आदर्श मानने वाले कम्युनिस्ट शायद आंक नहीं पा रहे कि, चीन अपनी नीतियों में भारी रद्दोबदल करके कहां पहुंच गया है। सूबे पर प्रतिव्यक्ति 15000 रूपये का कर्ज है। विकास की सारी योजनाओं की कमर टूटी पड़ी है। किसान खेती बोकर भूख काटने को मजबूर हैं। परंपरागत उद्योंगों से कुछ नहीं होने वाला। बेहतर हो कि मार्क्वादी कम्यूनिस्ट पार्टी अपनी नीतियों का पुनर्वलोकन करे। नीतियों पर एक स्वस्थ बहस करके कोई सार्थक फैसला ले, वरना नैनो औद्योगिक निवेश की पहल और अंत दोनों हो सकती है। लकीर का फकीर बने रहने से कोई फायदा नहीं होने वाला।
पार्टी की झिड़की को घुट्टी समझकर पी गए भट्टाचार्य की चुप्पी को मौन माफी ही कहा जा सकता है। क्योंकि वह भी जानते हैं कि लोकसभा अध्यक्ष सोमनाथ चटर्जी को बाहर का रास्ता दिखाया जा चुका है। सनद है कि उन्हें भी निकाल कर फेंका जा सकता है। स्थिती वही है जो भारतीय सामाजिक व्यवस्था की होती जा रही है। जिस घर को जवानी भर खून पसीने से सींचा उस घर को छोड़कर बुढ़ापे में जाएं भी तो कहां। चुप्पी में ही बेहतरी देखी और अमल कर रहे हैं। काडरों की डांट ने साफ कर दिया कि मुखिया भले हो लेकिन कमान हमारे हाथ है। बुड्ढों की तरह अपनी खाट और दो जून का रोटी से साबका रखो। सामाजिक शोभा के लिए कुर्सी पर विराजे रहो बाकी हम कर रहे हैं। खैर काडर चाहे जितने भी सूरमा बनें लेकिन बुद्धदेव भी तज़ुर्बे की बोली बोल रहे हैं। तीन दशक से ज्यादा बंगाल की राजनीति कर चुके भट्टाचार्य की हड्डियां साम्यवादी नीतियों से रच गई हैं। नीतिगत भला बुरा समझते हुए ही उन्होंने बंद का विरोध जताया था। वह जानते हैं कि इस तरह की रीजनीति से बंगाल औद्योगिक स्तर पर पिछड़ता जा रहा है। बदलाव की जरूरत देखकर ही उन्होंने बंद के खिलाफ ज़ुबान खोली थी और यह समयानुकूल एवं तर्कसंगत भी था। कहते हैं कि बुजुर्गों की बात कभी-कभी मान लेनी चाहिए। अब फैसला काडरों के हाथ है मानें या न मानें।

2 comments:

KUNWAR PREETAM said...

Madhukarji aapki baat 100% sahi hai.Bengal ka jitna nuksaan yahan 0 varsho me hukmarano ne kiya hai,utna aur kisi ne nahi.Industrial liberalisation ko jab desh ke saare pradesj gale laga rahe the, us samay inhe daal me kaala najar aa raha tha.Jab inhe hosh aaya, tab tak saare rajya aage badh chuke the.Ab inki neend khuli hai to jaise taise garib kisaano ki jamin jabariya chhin kar kaam karne lage hai.
prakash,kolkata
mahanagarindia.blogspot.com

shwetpriya said...

बंगाल और बंद का काफी गहरा रिश्ता लगता है। आए दिन कोई न कोई पाटी बंद का आह्वान कर देती है। हालांकि यह सब जानते हैं कि बंद किसी समस्या का हल नहीं है। इससे कुछ हासिल नहीं होता है। नफा तो दूर नुकसान ही नुकसान है। बंगाल बंद की राजनीति से काफी कुछ गंवा चुका है। अब भी वक्त है कि राज्य की बेहतरी के लिए राजनीतिक पार्टीयां बंद को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने से बाज आएं। हमें अपने पड़ोसी राज्य बिहार से भी कुछ सबक लेना चाहिए, जिसे कल तक पिछड़ा राज्य माना जाता था लेकिन अब विदेशों में भी बिहार के नाम का डंका बजने लगा है। बिहार को यह नयी पहचान मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने दिलायी है। अब बिहार ने विकास की राह पर अपने कदम रख दिए हैं। देश में ही नहीं विदेशों में भी बिहार की तरक्की को सराहा जा रहा है। हाल ही में न्यूयार्क टाइम्स ने बिहार में हो रहे बदलाव के लिए उसे माडल राज्य का खिताब दिया है। कुछ समय पहले तक बिहार का नाम आते ही लोगों के जेहन में गुण्डाराज, पिछडेपन और बेरोजगारी का दंश झेल रहे राज्य की तस्वीर उभरती थी। मगर अब यह बीती बात हो गयी है। नीतिश कुमार ने मानो कायापलट कर दी हो। कल तक लोग यह मानते थे कि बिहार एक ऐसा राज्य है जहाँ कोई भविष्य नहीं है। मगर नीतिश कुमार के शासन में सामाजिक, आथिक और कानून व्यवस्था ही नहीं शिक्षा के क्षेत्र में भी काफी बदलाव आया है।
बंगाल में भी हम कुछ ऐसी ही तरक्की की उम्मीद करते हैं।