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1.9.08

एक कवि का न होना

पाश

पंजाबी के अति लोकप्रिय कवि पाश को जितना पंजाब ने अपनाया उससे कहीं अधिक हिन्दी ने। पाश की कविता लहु की भाषा में लिखीं कविताएँ हैं जो किसी तरह की सरहद को मानने से इंकार करतीं हैं। उनमें दमन या शोषण के साथ समझौता नहीं, बल्कि ऐसा तीव्र आक्रोश है जो अपनी अभिव्यक्ति के लिए खौलती हुई भाषा गढ़ लेता है। उस पर पंजाबी के उद्दात्त स्वर ने जो खूबसूरती दी है, वह बेमिसाल है। पाश ने कहा भी है - शब्द हैं कि पत्थरों पर घिस घिस कर बह जाते हैं, लहु है कि तब भी गाता रहता है।
आदमी के मरने से ज्यादा खतरनाक होता है उसके सपनों का मर जाना। पाश की कविताएँ उन सपनों को बचाने की जिद है। किन्तु इसके लिए वे सपनों की बात न कर ऐसी खरी दो टूक बात करते हैं जो केवल जमीन से जुड़े आदमी के लिए ही संभव होती हैं। इस तरह लोहे और रेशम से कविता बुननेवाले इस लेखक को पंजाबी ही ने ही नहीं बल्कि हिन्दी ने भी खूब पढ़ा है। उनकी जिन्दगी का वही हश्र हुआ जो इस तरह की बात करने वाले का होता है। कम आयु में ही मारे गए, फिर भी उन की जगाई गई चिन्गारी आज तक जीवित है।


समय कोई कुत्ता नहीं है

फ्रंटियर न सही, ट्रिब्यून पढ़ें
कलकत्ता नहीं ढ़ाका की बात करें
आर्गेनेइजर और पंजाब केसरी की कतरने लाएँ
मुझे बताएँ
ये चीलें किधर जा रहीं हैं?
समय कोई कुत्ता नहीं
जंजीर में बाँध जहाँ चाहे खींच लें
आप कहते हैं
माओ यह कहता है, वह कहता है
मैं कहता हूँ कि माओ कौन होता है कहने वाला?
शब्द बंधक नहीं हैं
समय खुद बात करता है
पल गूंगे नहीं हैं

आप बैठें रैबल में, या
रेहड़ी से चाय पियें
सच बोलें या झूठ
कोई फरक नहीं पड़ता है
चाहे चुप की लाश भी फलाँग लें

हे हुकूमत!
अपनी पुलीस से पूछ कर बता
सींकचों के भीतर मैं कैद हूँ
या फिर सींकचों के बाहर यह सिपाही?
सच ए॰ आई॰ आर॰ की रखैल नहीं
समय कोई कुत्ता नहीं


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अब हक मेरा बनता है

मैंने टिकट खरीदकर
आपके लोकतंत्र का नाटक देखा है
अब मेरा हक बनता है कि
प्रेक्षागृह में बैठ
हाय हाय करूँ और चीखें मारूँ
आपने टिकट देते वक्त
टके तक की छूट नहीं दी
अब मैं अपने पसन्द के बाजू पकड़
गद्दे फाड़ डालूँगा
पर्दे जला दूँगा


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लोहा

तुम लोहे की कार का आनन्द लेते हो
मेरे पास लोहे की बन्दूक है

मैंने लोहा खाया है
तुम लोहे की बात करते हो
लोहे के पिघलने से भाप नहीं निकलती
जब कुदाली उठाने वालों के दिलों से
भाप निकलती है तो
लोहा पिघल जाता है
पिघले लोहे को
किसी भी आकार में
ढ़ाला जा सकता है

कुदाली में देश की तकदीर ढ़ली होती है
यह मेरी बन्दूक,
आपके बैंकों की सेफ,
पहाड़ों को उलटाने वाली मशीने,
सब लोहे की हैं

शहर के वीराने तक हर फर्क
बहन से वैश्या तक हर एहसास
मालिक से मुलाजिम तक हर रिश्ता
बिल से कानून तक हर सफर
शोषण तंत्र से इंकलाब तक हर इतिहास
जंगल, कोठरियों और झोपड़ियों से लेकर इंटरोगेशन तक
हर मुकाम, सब लोहे के हैं

लेकिन आखिर लोहे को
पिस्तौलों, बन्दूकों और बमों की
शक्ल लेनी पड़ी है
आप लोहे की चमक में चुँधिया कर
अपनी बेटी को बीबी समझ सकते हैं
मैं लोहे की आँख से
दोस्तों के मुखौटे पहने दुश्मन
पहचान सकता हूँ
क्योंकि मैंने लोहा खाया है
आप लोहे की बात करते हैं


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गज़ल

दहकते अंगारों पर सोते रहे हैं लोग।
इस तरह भी रात रोशनाते रहें हैं लोग॥

न कल हुए, न होंगे इश्क के गीत ये।
मौत की सरदल पर बैठ गाते रहे हैं लोग॥

आँधियों को यदि भ्रम है, अँधेरा फैलाने का।
आँधियों को रोक भी पाते हैं लोग॥

जिन्दगी का अपमान जब किसी ने किया।
मौत बन कर मौत की आते हैं लोग॥

तोड़ कर मजबूरियों की जंजीरों को शुरू से।
जुल्म के गले जंजीरें डालते रहे हैं लोग॥


( चमन लाल द्वारा अनुदित )

2 comments:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

भाई,बिना रुके पढ़ा और खामोश रह कर गुना इन बातों को.... पाश ने बांध लिया यार मेरे जैसे हौले को भी...

Anonymous said...

मुकुंद भाई,
अभिव्यक्ति को सामने लाना भी एक महारथ है, और इस में आप पारंगत हैं, बढ़िया है,