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5.10.08

भई अजीत के लिये खास उत्तर।

तर्क की शर्त रख कर तो जैसे दोस्त अजीत ने मुझसे अज्ञानियों के बैन ही कर दिया लेकिन सच कहूं तो मैं उनकी भावनायों की वेहद क़द्र करते हुए उन्हें विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि कितना ही हिन्दुओं को बरग़लाया क्यों ना जाये पर वे इंसानियत कभी नहीं छोडेंगें क्योंकि उनकी रग़ों में इंसानी ख़ून बहता है। दोस्तों धर्म-निर्पेक्षता एक ऐंसा अस्त्र है जो एक तथाकथित राष्ट्रवादी पार्टी की पतवार पिछले साठ सालों से बनी हुई है,जो उसे किसी हाल में खोना नहीं चाहती इसके बूते ही वो सत्ता में आती-जाती है। इस देश के भीतर कठमुल्लों के खिलाफ तो इन धर्म-निर्पेक्षवादियों,समाजवादियों,और मानववादियों की कभी ज़ुबान हिलती तक नहीं वजह है उनके प्रति इनका खौफ कहीं मेहमान नराज़ ना हो जायें दोस्त अजीत ही मुझे बतायें आज तक उनके ज्वलंत लेखों,पैनी समीक्षाओं और धर्म-निर्पेक्षवादी सोचों में कितनी बार अल्पसंख्यकों की ज़्यादितियों पर लिखा है। एक चीज बिल्कुल साफ बता देना चाहता हूँ कि इस तरह की धारणा ना बनाई जाये कि हिन्दुवाद संप्रदायिकता और मुस्लिम परस्ती धर्मसमानतावाद है। हम सिर्फ इतना कहते हैं कि अगर सब धर्म बराबर हैं तो फिर ऐंसी सोच क्यों? अजीत जी से पूछता हूँ कि क्या आज का राष्ट्रीय परिद्श्य वहुसंख्यकों की उपेक्षा का नहीं है? आप ज़रा पाकिस्तान में मुस्लिमों की उपेक्षा करके दिखाओ,ब्रिटेन में ईसायों के हासिये पर रख कर देखो। हम ये नहीं कहते देश में हिन्दुओं के अलावा बीकियों को हिन्दमहासागर में फेंक दो हम ये नहीं कहते अल्पसंख्यकों को देश से खदेड दो हम ये नहीं कहते कि राष्ट्रधर्म हिन्दू ही हो और ना हम ये कहते कि हमारे सदियों से साथ रह रहे प्रिय मुस्लिम भाई और ज़बरिया पधारे बिन बुलाये मेहमान ईसाइयों को मारो या उनके प्रति दुराभाव रखो। हम सिर्फ कहते हैं राष्ट्रवादी बनो और हिन्दूवाद और राष्ट्रवाद में फर्क रेखा नहीं है। हिन्दूवाद राष्ट्रवाद की ग्यारंटी है।.....तर्कपूर्ण विचार की अपेक्षा अपने तर्कों को वेदम सावित करती है। जय भारत,जय हिन्द और जय हिन्दू।।।।।।।।।

2 comments:

गोविंद गोयल, श्रीगंगानगर said...

sahi hai, nakali dharmnirpekshata ne hinduon ko dusare darje ka bana diya hai. aapki baat sahi hai. main to kahta hun jo hinduon ke bat kare wah sampardayik or dusaron kee kare to sachcha dharmnirpeksh

Yun Bhi Socha Ja Sakta Hai said...

आज एक बेहद ’‍बुद्धिमत्तापूर्ण’ ब्लाग ’मोहल्ला’ पर एक बेहद सुलझी हुई व सारगर्भित पोस्ट देखने को मिली जो हिन्दुओं की तुलना मांसभक्षियों से करती है. उसी पोस्ट के नीचे मेरी प्रतिक्रिया है -

http://mohalla.blogspot.com/2008/10/blog-post_04.html

हममें इंसान का सामना करने की योग्यता बची है?

प्रिय अविनाश,
अगर तुम ठीक समझो, तो इसे मोहल्‍ले पर शाया कर सकते हो। उम्‍मीद है, बाक़ी सब बढ़‍िया होगा।
अपूर्वानंदपचीस वर्ष हो गये हैं, जब हमने पटना इप्टा की ओर से चीनी लेखक लू शुन की कहानी एक पागल की डायरी का मंचन किया था। जावेद अख्तर खान ने मुख्य भूमिका निभायी थी। ज़ोर देने पर भी याद नहीं आ रहा कि तब क्यों हमने इस कहानी को मंचित करने के बारे में सोचा था।

इन पचीस बरसों में यह कहानी दिमाग की दराज में पड़ी रही। कहानी के आखरी दो वाक्य जैसे एक मन्त्र की स्मृति की तरह रक्त में घुल गए : "शायद बच्चों ने आदमी को नहीं खाया है? बच्चों को बचा लें..." एक विक्षिप्त हो गये मनुष्य की कातर, आर्त पुकार है। नफ़रत के निरंतर प्रचार के बीच लगभग नब्बे साल पहले चीन से उठी यह चीख मेरे मस्तिष्क के आकाश में मंडराती रही है।

कथा का वाचक अपने स्कूल के दो दोस्तों से कई साल बाद मिलने जाता है। उसे उनमें से एक के बीमार रहने की ख़बर मिली थी। उनके घर जाने पर बड़ा भाई बताता है कि छोटा भाई अभी अभी बीमारी से उबरा है और कोई सरकारी नौकरी उसे मिल गयी है। फिर वह वाचक को अपने छोटे भाई की बीमारी के दौर में लिखी गयी डायरी की दो जि‍ल्दें देता है और कहता है कि इन्हें पढ़ने से शायद उसकी बीमारी के बारे में कुछ मालूम पड़ सकेगा। वाचक को डायरी पढ़ कर लगता है कि उसका दोस्त एक प्रकार के पर्सिक्युशन कोम्प्लेक्स से पीड़ित था। फिर वह इसे समझने के ख्याल से डायरी के कुछ हिस्सों की नक़ल प्राप्‍त करता है।

मैं जब भद्र वर्ग के पुरुषों और महिलाओं के बीच बैठा गुजरात में मुसलमानों के क़त्लेआम या उड़ीसा में इसाईओं के मारे और बरबाद किये जाने के पीछे उन समुदायों की बदमाशी को ही कारण की तरह प्रस्तुत किये जाते सुनता हू तो मुझे फिर यह कहानी याद आने लगती है। मुझे उन्नीस सौ तिरासी, चौरासी के दिन याद आते हैं - जब पंजाब में सिखों के बड़ी तादाद में ग़ायब किये जाने और मार दिये जाने के पक्ष में भी ऐसे ही तर्क दिये जाते थे। पटना में सिखों को लूटा गया, तो यही तर्क दिया गया था कि कभी भी उन्होंने क्यों नहीं सिख आतंकवाद का मुखर विरोध किया। जैसे यह कितना अकाट्य तर्क हो किसी को मार दिये जाने के पक्ष में। मुझे पटना के हर मन्दिर साहब में शरण लिये सिख याद आते हैं, जो अपने पड़ोसी हिन्दुओं से डर कर वहां छिपे बैठे थे, जो उनका खून पी लेना चाहते थे।

अभी चार रोज़ पहले एक बैठक में एक दोस्त बताने लगीं कि उनकी बच्ची उनसे यह पूछ रही थी कि क्या ऐसे दिन आने वाले है, जब उसे भी वैसे ही छुप कर रहना पडे़गा जैसे नाजियों के ज़माने में एन फ्रैंक को रहना पड़ा था! हमारे एक दोस्त ने कहा कि यह अतिरंजित भय की अभिव्यक्ति है। अभी हमारे हालत ऐसे नहीं हुए हैं। हमारे एक दोस्त ने कहा कि वह बेहद डर गया है और उसे ऐसा लगने लगा है कि कोई उसके पीछे आ रहा है, उसे घेरने आ रहा है। क्या सब कुछ उसी पर्सिक्युशन कोम्प्लेक्स के लक्षण हैं, जिससे एक पागल की डायरी का वह पात्र ग्रस्त था?
"आज आसमान में चांद है ही नहीं, और मैं जानता हूं कि यह अपशगुन है। आज सुबह मैं बड़ी सावधानी से बाहर निकला। मिस्टर झाओ बड़ी अजीब निगाहों से मुझे देख रहे थे मानो मुझसे डरे हुए हों, जैसे मुझे मार डालना चाहते हों। सात-आठ और थे जो फुसफुसा कर मेरे बारे ही बात कर रहे थे। और वे इससे भी डरे हुए थे कि मैं उन्हें देख रहा था। मैं जितने लोगों के करीब से गुजरा वे सब इसी तरह घबराये हुए थे। उनमें जो सबसे खौफनाक था, उसने मुझ पर दांत निपोड़े। इससे एड़ी से चोटी तक मैं सिहर उठा, क्योंकि मुझे मालूम था कि उनकी तैयारी पूरी थी...

...मैं हालांकि डरा नहीं और बढ़ता ही चला गया। मेरे सामने बच्चों का एक झुंड था, जो मेरे बारे में ही बात कर रहे थे और उनकी आंखों में भी मिस्टर झाओ जैसे ही भाव थे। मैं सोचने लगा कि आख़िर इन बच्चों को मुझसे क्या शिकायत रही होगी कि वे ऐसा बर्ताव कर रहे है!

...मुझे मालूम नहीं कि मिस्टर झाहो को या सड़क के इन लोगों को मुझसे क्या शिकायत है। मुझे कुछ भी याद नहीं आता सिवाय इसके कि बीस साल पहले मेरे पाँव मिस्टर गू जियु के बही-खातों पर पड़ गये थे और वे बेहद नाराज़ हुए थे। हालांकि मिस्टर झाओ उन्हें नहीं जानते लेकिन हो सकता है उन्होंने कहीं इसके बारे में सुन रखा हो और इसका बदला मुझसे लेना तय किया हो। शायद इसलिए वे सड़क के इन लोगों के साथ मिल कर मेरे ख़िलाफ़ साज़‍िश कर रहे हैं। लेकिन इन बच्चों का क्या? उस वक्त तो ये पैदा भी नहीं हुए थे, फिर ये मुझे आज इतनी अजीब निगाहों से क्यों देख रहे हैं जैसे कि मुझसे डर रहे हों और जैसे मुझे मार डालना चाहते हों?

...मुझे पता है। उन्होंने यह सब कुछ ज़रूर अपने माँ बाप से सुन रखा होगा! "
पागल की डायरी का पागल ऐसा महसूस करने लगता है कि वह चारों ओर से ऐसे लोगों से घिर गया है जिन्हें आदमी का मांस खाने की आदत पड़ गयी है। वह लिखता है कि उसके गांव से कोई आया था, जो यह बता रहा था कि किस तरह गांव के लोगों ने एक बदमाश को पीट-पीट कर मार डाला और फिर कुछ लोगों ने उसका जिगर निकाल कर तल कर खा डाला था। यह सुन कर जब वह अपने भाई और गांव वाले को टोकता है तो वे उसे घूरने लगते हैं और उसे लगता है कि उनकी निगाहें भी सड़क के लोगों जैसी ही हैं। तो क्या उन्हें भी आदमी का मांस खाने की आदत है?

आगे वह लिखता है, "मुझे उनका तरीका मालूम है : वे फौरन मार डालना नहीं चाहते, उन्हें इसका साहस भी नहीं क्योकि उन्हें इसका नतीजा पता है। इसकी जगह वे सब मिल गये हैं और उन्होंने हर जगह फंदा बिछा दिया है ताकि मुझे अपने आप को मार डालने पर मजबूर कर दें। कुछ दिन पहले सड़क के लोगों के बर्ताव और कुछ दिन से मेरे भाई के व्यवहार से भी यह साफ़ हो गया है। उन्हें जो सबसे पसंद है, वह यह कि आदमी अपनी belt निकाल कर उसी से ख़ुद को लटका ले... ज़ाहिर है, इसमें उन्हें बहुत मज़ा आता है और वे हंसते हंसते लोट-पोट हो जाते हैं।"

"...वे सिर्फ़ मरा हुआ मांस खाते हैं।" आदमी का गोश्त खाने कि इच्छा, साथ ही यह डर कि कोई उन्हें भी खा जा सकता है, इस वजह से वे सब एक दूसरे को शक की निगाह से देखते रहते हैं। आगे वह लिखता है, "उनकी ज़िंदगी कितनी सुकून भरी होती, गर वे ख़ुद को इस शक से आजाद कर पाते?"

क्या डायरी लिखने वाला पागल है? वह लिखता है, "मुझे यह एहसास अब जा कर हो पाया है कि मैं ऐसी जगह रह रहा हूं जहां चार हज़ार साल से आदमी का मांस खाया जाता रहा है। चार हज़ार साल के मनुष्य भक्षण के इतिहास के बाद मुझ जैसा व्यक्ति किसी वास्तविक मनुष्य का सामना कैसे कर पाएगा? "अपनी पीढी की इस अक्षमता से निराश वह पागल अपनी डायरी इन वाक्यों पर ख़त्म करता है, "शायद अभी भी बच्चों ने आदमी का मांस नहीं खाया हो? बच्चों को बचा लें..."

दिल्ली, भागलपुर, नेल्ली हाशिमपुरा, भिवंडी, ठाणे, आजमगढ़, जयपुर, इंदौर, धार, रतलाम, मंगलोर, कंधमाल के बाद क्या हममें इंसान का सामना करने की योग्यता शेष रह गयी है? फिर हम क्या करें?

Posted by avinash तारीख़ Saturday, October 04, 2008

इस पोस्ट के प्रतिउत्तर में इसी पृष्ठ पर दी गई मेरी टिप्पणी है -

Yun Bhi Socha Ja Sakta Hai said...
यह पोस्ट व इसके प्रत्युत्तर में भेजी गई टिप्पणियों को देखकर एक बात स्पष्ट हो जाती है कि मुस्लिमों के तुष्टीकरण, समर्थन व विरोध को लेकर हिंदुओं में फैले जबर्दस्त अंतर्विरोध की जड़ें दरअसल कहीं बहुत गहरी जगह से आती हैं।

यह मानने में शायद भारत में रहने वाले किसी भी मुस्लिम को शर्म नहीं आएगी कि वह किसी हिन्दू की ही पांचवीं-छठी पीढ़ी का वारिस है, शायद ही कोई ऐसा मुस्लिम होगा भारत में जोकि शुद्ध रूप से उन्हीं लोगों का ही वंशज होगा जो सिर्फ और सिर्फ तलवार, रक्तपात, हिंसा, बलात्कार और लूटपाट के बल पर (क्या इन शब्दों में भी मेरे किसी प्रिय सेक्युलर भाई को झूठ प्रतीत होता है, यदि हां तो क्षमा करें, शायद यह भी विश्व हिन्दू परिषद या बजरंग दल के द्वारा फैलाई झूठी अफवाहें मात्र हों) इस्लाम धर्म को सारी दुनिया में फैलाने निकले थे जिसमें वे काफी हद तक सफल भी रहे।

लेकिन फिलहाल हम सिर्फ हिन्दुओं की ही बात करें। सवाल यह पैदा होता है कि मात्र गिनेचुने (कुछ सौ या हजार) मुस्लिमों के आने के बाद यदि दुनिया के इस भूभाग में वे इतनी बड़ी संख्या हासिल कर चुके हैं कि देश की आजादी के बाद, दो पूरी तरह से मुस्लिम राष्ट्रों का निर्माण होने के बाद भी वे भारत में इतनी बड़ी संख्या में व्याप्त हैं कि यहां के सत्तालोलुप नेताओं (सभी दलों के) की लार को आकर्षित करने में कामयाब रहते हैं, तो फिर इतनी बड़ा संख्याबल उन्हें प्राप्त कैसे हुआ?

हालांकि यह सच है कि कतिपय कारणों से मुस्लिम समुदाय में अधिक बच्चे पैदा करने की प्रवृत्ति देखी जाती है तथा इसे प्रोत्साहित भी किया जाता है (उन कारणों की तह में फिर कभी जाया जाएगा), फिर भी बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्तन के बिना किसी भी संप्रदाय का इतना अधिक विस्तार किसी भी तरह से नहीं समझा जा सकता है।

सिखों के धर्म ग्रंथ मुगल काल के उन प्रसंगों से भरे पड़े हैं जिनमें जबरन धर्म परिवर्तन करके इस्लाम ग्रहण न करने पर सिख धर्मगुरुओं को ऐसे भयंकर तथा रोंगटे खड़े कर देने वाले तरीकों से मौत के घाट उतारा गया, जिन्हें देखकर कितने ही हिन्दुओं ने खून के घूंट पीकर सपरिवार इस्लाम ग्रहण किया होगा। उन्हीं हिन्दुओं के वंशज आज पाकिस्तान और बंगलादेश में बैठकर हमारे देशवासियों का रक्त पी जाने को आतुर हैं, यह भी किसी से नहीं छिपा है।

(यदि बंगलादेश के बारे में कोई गलतफहमी हो तो तसलीमा नसरीन के लिखे उपन्यासों में वहां हिन्दुओं की स्थिति देखें, और यदि वे भी विहिप या बजरंग दल की सदस्या मालूम होती हों तो सिर्फ इतना याद करें कि सन 2000 में बीएसएफ के भारतीय जवानों के शवों को कितने सम्मान के साथ मरे हुए जानवरों की तरह उल्टा लटका कर वापस भारत में भेजा गया था। और कुछ भूल रहे हों तो यह भी याद कर लें कि उन जवानों का पोस्टमार्टम होने पर यह भी स्पष्ट हुआ था कि बेहद दर्दनाक यातनाएं देकर उन्हें मौत के घाट उतारा गया था। मेरे प्रिय सेक्युलर बंधु शायद यह स्मरण कर भी आहलादित हों कि किस प्रकार कारगिल युद्ध के समय पाकिस्तान ने भी कुछ भारतीय जवानों के साथ ऐसा ही किया था। इन जवानों में हिमाचल प्रदेश के सौरभ कालिया भी शामिल थे, जिनके कान इस प्रक्रिया में काट दिए गए थे मेरे प्रिय मोहल्लावासियों।)

लेकिन बात दरअसल यहीं खत्म नहीं होती बल्कि असल बात यहां शुरू होती है। एक टिप्पणी में जैस कि लिखा है ‘सवर्ण हिन्दू क्रूर होते हैं’ तथा ‘ये वही सवर्ण हिन्दू हैं जो अवर्ण हिन्दुओं को भी नहीं बख्शते’, दरअसल यह दो पंक्तियां हिन्दुओं में फैले सारे अंतर्विरोध की जिल्दें तार तार कर देती हैं, और एक छोटी सी चाबी की तरह खोल देती हैं इस द्वंद की जड़ों को।

जितना सच इस्लाम की शुरुआत से ही उसके प्रचार प्रसार में अपनाई गई भयंकर व अद्वितीय क्रूरताओं व बर्बरताओं में है, जोकि एक हद तक अब उसकी पहचान के रूप में लिया जाने लगा है, ठीक उतना ही सच इस बात में भी है कि हिन्दू समाज में दलितों (उपरोक्त टिप्पणी के अनुसार अवर्णों) के साथ आजादी से पहले तक भी बेहद भेदभाव व अन्याय किया जाता रहा है। यह ऐसा सच है जिसे हर हिन्दू को मानना चाहिए और इस पर शर्म भी आनी चाहिए। लेकिन यह भी मानना होगा कि हिन्दू समाज एक रूढ़िवादी समाज है और सती प्रथा, बाल विवाह, दहेज प्रथा जैसी परंपरागत कुरीतियां इस धर्म के सभी वर्गों में (जिनमें दलित भी शामिल हैं) अभी तक कायम रही हैं और हैं भी।

दलितों के साथ भेदभाव एक ऐसा सच है जिससे हिन्दुओं को पूरी तरह से छुटकारा पाना ही होगा, हालांकि इसमें समय लगेगा और यह स्पष्ट है कि कम से कम आज की तारीख में फिर भी दलित पहले से बेहतर स्थिति में हैं। बदतर स्थिति में है कोई तो वह निर्धन वर्ग है, चाहे किसी धर्म का ही सही।

लेकिन इस बात से शायद ही किसी को इन्कार हो कि मुगलों से भी पहले तुर्कों, मंगोलों व बाद में मुगलों के काल में भी जिस बड़े पैमाने पर हिन्दुओं ने धर्म परिवर्तन करके इस्लाम ग्रहण किया (हालांकि तलवार के बल पर मजबूरन ही), उनमें सबसे बड़ी संख्या दलितों की ही रही थी क्योंकि उनमें से अधिकतर विपन्न, शक्तिहीन व सवर्णों द्वारा प्रताड़ित थे।

इस पोस्ट को और इसके प्रतियुत्तर में छपी कुछ टिप्पणियों (जिनके लेखकों में सभी हिन्दू हैं) से हिन्दू समाज और विशेषकर सवर्ण हिन्दुओं के लिए जैसी कड़वाहट और मुस्लिमों के लिए जैसे औदार्य का परिचय मिलता है, क्या उसको समझने में भारत के अधिकांश मुस्लिमों से इन विद्वत हिन्दूजनों का वंशजीय रक्त संबंध कुछ मदद कर सकता है?

October 6, 2008 6:27 PM