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6.10.08

पैसेंजर


पैसेंजर
छूटते पर्जन्यवन-वनांतरडांडे पर लगे झुरमुटआड़े - तिरछे खजूर के सरल दरख्तसमाधिस्थ - झुटुंग - बोहड़ केविलुप्त प्राय - प्रसृत - बलस्थ वृक्ष,मेघो के राज्य में सिरोन्नत किएविस्मयी - विमुग्धकारी - गिरिशिखर उटज ; छोटे - छोटे स्टेशन वित्त - निरापद खेत - खलिहान मध्य ठाड़े,कुछ अवगणित उजके चुप संवलाई नदियों के मदमाते - उफनते यौवन पर आसक्त - मदालस - बूढ़नद ; गुजरते मठ , सूने पुलरेला - सी चली लजाती - ठठाती कुछ युवतियां कतारबद्धअलसाय बैरियर ; परिपाश्व
मैं खड़े अधीर नर - मुंड - ठट्ट ,डगमगाती सर्पिल परि - पथ पर भागती एक निर्वाच्य - बूढ़ाती-जर्जर - पैसेंजरआभ्यांतर जिसके जन्गुम्फित - प्रशस्त जनरल कक्ष जिसके जीवन से भग्नाश खाली पेटों की सालती पीडाओं से विक्षुब्धअभावजन्य कुंठाए क्षितिज ताकती तर - परहावकाभरते अधेड़ ; आदिम ग्रंथि से ग्रस्त लटकती उँगलियों में पड़ी ढेर अंगूठियाँ हांक लगते हाकर्स के कामिक झुंड कौतुहल से भरे परिचपल बच्चे शांत ॠद्धालु रूग्ण - लड़ -खड़ाते डोकरे , हारे गाढ़े ठसी परछिद्रान्वेशी नारियां गप्प मारते परिवापित - शम्श्रुल - तरुण कुछ सोढर- निघर घट ढोंग धतूर तथा विडम्बक जीवन प्रभंजन झेलते हा हा ही ही हु हु खी खी ठी ठी करतेमिश्रित जन समूहों के अंत हीन जमघट ; उधर एक कोने सिमटी वह नतनयन घट बैठी वर्षाहत हहराती सवत्सदिव्या रूप के प्रति अचेतन , संघट्टावलेप से जिसका दमकता पुताननकान में बिरिया - टूम होंठ छूती बुलाक कंठ में बिछे सिक्कों का मुक्ताहार बाँहों में बहुट्नी कलाई में चूडियों का निबंध ठालिनी - धारित लंक नग्न पावों में जावक व अनवट ,बीच - बीच में उधडे वस्त्र देह से झरता अनपेक्षित उपेक्षित जोबन विलोक उस नारी का वह वन्य वृक्ष लताओं सा आदिम अरण्य रूप , आरम्भिक झिझक छोड़ते निर्निमेष ; भूलते भूत भविष्यत् चितन जमती होठों पर फेफ्ड़ी
भरतेफुफ्फसोंमें आदिम सुवास , छाती उस बोगी के समस्त पुरषों पर अचिर उत्तेजना अकस्मात ; तभी जीने के लिए जन्मा भूख से कसमसाया वह नन्हा सध: जात , देख सुन उसका क्रंदन जहाँ नहीं कोई अड़तलताहम विस्मृत कर समस्त व्रीडाएँखोला उस स्त्री ने देव दुर्लाभय अमृत से भरा परिवर्तुल स्तन स्तब्ध नक्त पाषाण खंड से जड़ सम्मुख देखते सहज सुलभ्य नारीक दुस्पर्ष अन्चीन्हित ज़िग्यासाएँअब भी एकटक किन्तु नहीं थे वे भाव अब उन आंखों में यथावत वरन बड़ रही ठी ह्रदय की प्रखर वेदना और हो रहा था निर्मल जीवन का उदय शनेः शनेः , सत्यत: यह कैसा सनातन मानस क्या करता इस द्रश्य में अपनी मातृ दर्शन अथवातिरता स्मृति पटल पर स्वयं का चिंता हीन अनदेखा अदभुत शैशव , की तभी ढँक लिया इस प्रछन्नमर्म को शिशु के चोंकने के विभू स्वर ने , उधर नारियों ने भी की तत्काल ओट अलार - सी , टूट चुकी थी समस्त श्रंखलाएँ जड़ता की , बाहर बढ रही थीपूर्वपेक्ष्या गति उत्फुल्ल वर्षा की रिमझिम फुहार की

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