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16.10.08

मेरी बहन

दरवाजे की आड़ खड़ी ,लिए हाथ मैं थाली, था जिसमे चावल काली मूंछ ; सुन रही थी बेटे को कहते बहन की चोटी को गाय की पूँछ , मंद मंद मुस्करा , कर रही थी झूठा गुस्सा "मारूंगी चपत तुझे , मत सता बहन को अपनी कुछ दिन का है जो हिस्सा " सुन माँ की बात लजाई युवती ; कर विभंग मार भाई को धमूका भागी हरिणी - सी वह चपला ; विछोह के शाश्वत सत्याभास से किंकर्तव्य - सा खड़ा है भाई उधर दृग भर आए पितृ के संग माता भी रोई अन्दर स्वर सुना सुबकती बहन भी है इस अचिर निस्तब्धता की निरंकुश सत्ता सह सके नहीं अक्षरवृन्द ; अचिरात सोख जल अग्नि अवलंब से थामगंध वह को सुगंध फैलाने वह लगे "टूटी तंद्रा ; तब समवेत हुए भूय सकल , खिल उठे आनन् सबके देख भाई का धूआ सम प्रदर्शन ,इधर धर चिबुक पर हाथ , सस्मित विलोक राव - चाव स्वर्ण - चूर्ण छींटता सूर्या अस्ताचल में जा छिपा , उधर पालकी में विराज नव वधु - सी यामिनी आ रही थी देखने नव युवती का स्वप्न में प्रिय संग विहार धीरे - धीरे दिवस हुए विगत ; प्रथानुकूल तब सगे सहोदर दूरस्थ निकटस्थ मुहं लगे मुंह बोले सम्बन्धी , तटस्थ , प्रतिवेश्य मित्र उपमित्र समस्त ले - ले कर आय नित नवीन प्रति नव प्रस्ताव अत:पर अत्तुतम लगा सर्व सम्मति से , भिजवाया निमंत्रण समादरणीयों को साग्रह से ज्ञात तिथि पर हुआ आगमन थे सपरिवार , उतरे ठाट से कार से करते विहंगम दृषि्टपात; उधर ग्रह स्वामी भी तत्क्षण प्रस्तुत हो करते प्रतिनंदन हाथ प्रसार ; देख विवर से आगुन्तागम घटा धूम-सी मच उठी भीतर, सुना भ्रातव्य वीराव घन निनाद,तबभी व्यस्त ही बनी रही प्रिय -संदर्श-अभिलाषित युवती करती महा श्रृंगार ;कटिघेर -घार के ,सामने सप्रयास ,डाल चुन्नट ,स्कंध पर सजाये पल्लापहनी उसने साड़ी किंतु हो रहा दुरूह उसका तावत उसे संभालना ,होता था प्रवृत आँचल ढिठाई से,इधर-उधर विलोल पतन पथ पर अग्रसर वह बार-बार था गिरता जाता ;सहसा वह चौंक पड़ी ;निज -विचार-विवर्त से निकल सुन भाई का आलाप ,बुरी तरह से जो खटखटा रहा था कपाट ,चीख चिल्ला कर करता उपालंभ प्रहार "कन्या-दर्शन-समुत्सुक -धेर्यच्युत बैठे हुए समस्त, हो रहे जीजाजी भी अधीर ,अब तो खोल कृपा करके तू दर्भट" सुन वचन भाई के बिफरी वह क्रोध से जैसे-तैसे पहन कोकई साड़ी निकली वह कक्ष से ,किंतु थी वह अति विकल अब भी थी कंही-कंही ऊंची साड़ीतो कंही साया मुख दिखने को था तत्पर ;मुख दबा हँसी को कर नियंत्रित अभिभूत था भाई बहन का यह सहज रूप देखकर ; इतने में माँ आई लिवाने पर ज्यों देख वह छवि मनोहर ठगी-सी रह गई मानो स्वयं खड़ी हो युवती बनकर;झूलती लटोंको परे धकेल ,चुम्बित कर ललाट परसिक्त नयनो से भरा विशवास माँ ने लगा लली को अंक से उज्झटित-उद्व्वेगित -पुलक-प्रकम्पित-बनी-ठनी-बेल-बूट-अम्बार-से लड़ी-फदी भर उफाल चल पड़ी लिए हाथ में चाय-चूडा मार्ग में ओट में दीठ मारता भाई था खड़ा ,देख उस विदूषक को खिल उठा हँसी से उसका चेहरा ,दिया गया फ़िर संक्षिप्त परिचय उपस्थितों को पंक्तिबद्धबिना उपोद्घात गौर-वर्णा-मंजुलचित- मितभाषिणी-परस्नातिका - कंप्यूटर - शिक्षित-प्रशिक्षित - विभान्ति गृह कार्य दक्षिता एवं वर्तमानकाले निज विद्यालययीन प्राध्यापिका देख सुन भली भांति परिपृचि्छतहर्षित थे समस्त उसके आचरण से हृदयांगमकर छवि को उसकी थमाई एक सूची अचिरात पित्र्हस्त में - स्वर्णभूषण नगद राशि एवं कार - फ्रीज टीवी वाशिंग मशीन उत्तम भोजन बाराती जन मात्र हजारयही है केवल साध्य देना जिसमे अधिकतर अभी तो कुछ विवाह शुभ बेला पूर्व यदि यह नहीं स्वीकार तो यहाँ आना हुआ बेकार मुख खुला का खुला ही रहा स्तब्ध थे नयन सुन आगुन्ताको- उदगार,विस्मित पर्यश्रु भाव-ताव में अदक्ष गृहस्थ ने दिखाया उन्हें तत्काल -द्वार उस नीरव संध्या में प्रशांत उपस्थ ,सभी थे उदास ,की तभी आई विचित्रित चीर वसित बहन करने सबके दुःख का परिहार हंसती हुए चिबुक पकड़ भाई का बोली "अच्छा ही हुआ अब हम रहेंगे सदा साथ "हंस पड़ा भाई देख उन्हें खिल खिलाहट पुनः हो उठी निर्जातफ़िर बीते बसंत ,ग्रीष्म भी हुए विगत सुनी सबने झींगुर की लयबद्ध झंकार और बेंग विलाप जाड़ा भी देखो पत्र-सम-खड़कता थर-थर-कांपता हाथ हिलाकर चला गया;
हुए फ़िर आरम्भ , प्रयास अथक निरविच्छिन्न निरंतर युवती ने भी दिया विमन सर्वथा परिजन - साथ और सदा की तरह सहा पुरूष प्रधान अपसंस्कृति का निर्मम प्रहारओह ! धरा में धंसे हैं देव प्रवर दृग मूंदे मंद हँसी क्यों हँसते हो क्या छिपा है कोई गूढ़ोत्तर इस मौन में अथवा प्रसन्न हो वर पक्ष के आराधन से देखो वे जो आय देखने भदंत कई दुकान अवस्तिथ प्रदर्शित वस्तु समझ दिए कैसे उत्तर उस सरल ह्रदय युवती देख कर कन्या दुबली है थोडी लम्बी है रंग नहीं है साफ़ , परिवार भी है नंगा बूचा वर की बहन को हुई अस्वीकार सीधी साधी आंग्ल संस्कार विहीन अंत में सर्व प्रिय घोष जन्मपत्री नहीं परस्पर मिली क्योंकि कन्या में है प्रबल मंगल दोष किन्तु थी अभी शेष यातना की पराकाष्ठा , सहना था उसे आघात , मर्म को था जो भेदता , आए एक जुड़ुंगी लिए किंभूत प्रस्ताव बोले वे " कन्या नहीं रही अब कन्या हो गई वह अब तीस की , कर चुकी विवाह वय पार अथअब नहीं उस हेतु इस धरा पर कोई संयोग शेष , एक रिश्ता है सुपात्र का आंखों में हे पड़ा , जाने कब से बाट में जोह हूँ रहा घर उसका स्थापत्य - सा, शून्य है मांग ,केवल दस वर्षीय बालक उसका भोलाभाला करना शोभित अट्टालिका को वह मातृविहीन ;वह विधुर थोड़ा सा ही बड़ा है किन्तु तुमने कभी सुना है , पुरूष क्या होता कभी बूढ़ा है ?उस रात सहसा उचाट गई नींद भाई की , आया कक्ष मैं देख ध्वांत मैं एक छवि निमग्न अवसाद था जिधर मौन भी , सन्नाटा भी था जहाँ था फैला थर -थर विधूत अवयव आवेश से , पल पल छा रही मस्तिष्क पर विगत अनुभवों की छाया विकलता से हाथ मारती वह इधर उधर , बैठ वहीं दीवार अड़तल अज्ञात भावों को लिए अंतस मैं , ताकती आकाश थी ;दुःख था अगोचर अस्तित्व भी हुआ विलीन सुन पदाचार स्वर स्थिर ही वह रही , क्या बोलता भाई उससे , ढांढस भी क्या बंधाता मौन ही रह उसके मौन को वह समझाता ; सहसा वह उठ खड़ी हुई झटक कर अश्रुओं को नियति को नहीं स्वीकार तीर -सी निकल कक्ष से बादामी कापियों के स्तूप को जांचने वह लगी ; भाई देखता उसे तो कभी ताकता आकाश टिमटिमा रहा था जहाँ तम् से लड़ता तारा एक मातृ किन्तु भावान्तर तो अज्ञात था नव विभात के साथ हुआ रश्मियों का सतत पर्यास आय फ़िर से उसे देखने एक नवांगतुक ; कठिनता से गई युवती कक्ष में होने तैयार ज्यों पीठ फेर कर भाई मुडा त्यों खुल गया वह कपाट साड़ी अब नहीं रही दुरूह उसके लिए किन्तु मातृ पितृ का भगीरथ श्रम हो चुका था फलीभूत ,फ़िर आगे जो घटा ,उसी लिंग के मौन में वह था छिपा

3 comments:

वेद रत्न शुक्ल said...

दिलचस्प प्रयोग. लेकिन वर्तनी सम्बन्धी त्रुटियों पर ध्यान अपेक्षित। यथा- दो शब्द एक साथ मिलकर अर्थ समझने में बाधा पैदा करते हैं।

Bandmru said...

bahut khub..... aachchha laga.

Amitraghat said...

sir maine sudharne ki kosish ki thi original kavita me sab alag alag hi hain
amitraghat