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18.10.08

एक हिन्दी शिक्षक की व्यथा

मैं एक अध्यापिका हूँ
हिन्दी पढ़ाती हूँ ।
मत पूछो दिन भर
कितना सकपकाती हूँ ।
जब भी कहीं किसी से
मिलने जाती हूँ --
बहुत आत्मविश्वास जताती हूँ ।
किन्तु प्रथम परिचय में ही-
पानी-पानी हो जाती हूँ ।
जब कोई पूछता है-
आप क्या करती हैं ?
मैं बड़े गर्व से कहती हूँ -
मैं एक अध्यापिका हूँ ।
अच्छा---?
किस विषय की -?
इस प्रश्न का सामना
कभी नहीं कर पाती हूँ ।
सुनते ही बहुत नीचे
धँस जाती हूँ ।
लगता है ये एक ब्रह्मास्त्र है ।
जो मेरे आत्मविश्वास को
खंड-खंड कर देगा ।
और मैं -चाह कर भी
अपनी रक्षा नहीं कर पाऊँगी ।
प्रश्न फिर गूँजता है--
किस विषय की ---
जी --हिन्दी की
बहुत कोशिश करके कहती हूँ ।
सभी के चेहरों का सम्मान
हवा हो जाता है ।
और आँखों में-
एक हिकारत सी आजाती है ।
मुझे लगता है--
मैं कोई बड़ा अपराध कर रही हूँ ।
अंग्रेजी प्रधान लोगों में
हिन्दी का प्रचार कर रही हूँ ।
मेरे विद्यार्थी हिन्दी से
उकता जाते हैं ।
पर जब कभी--
बहुत प्यार जताते हैं -
तब पूछ बैठते हैं -
मैम आप ने हिन्दी क्यों ली ?
उस वक्त मेरी नसें -
फड़फड़ाने लगती हैं ।
किन्तु प्रत्यक्ष में
खिसियाकर मुसकुराती हूँ ।
पर कोई ठोस कारण
नही बता पाती हूँ ।
एक बार प्रयास किया था ।
हिन्दी के महत्व पर
बड़ा सा भाषण दिया था ।
धारा प्रवाह हिन्दी का
जयगान किया था ।
किन्तु एक विद्यार्थी ने
झटके से पूछ लिया था --
क्या आगे काम आएगी ?
नौकरी दिलवाएगी ?
मेरा उत्साह शून्य में खो गया
मैं बहुत कुछ कहना चाहती थी -
किन्तु मेरी ये बातें कौन सुनेगा?
हिन्दी हमारी राष्ट भाषा है--
तो हुआ करे----
वह वैग्यानिक और सरल है-
किन्तु नौकरी तो नहीं दिला सकती ।
विदेश तो नहीं भिजवा सकती ।
मुझे अपने हिन्दी पढ़ाने पर
शर्म आने लगती है ।
दूर-दूर ढूँढ़ती हूँ -
पर कहीं कोई हिन्दी प्रेमी नहीं मिलता ।
हिन्दी के लिए मान
झीना होने लगता है ।
और मुझे कुछ चेहरे
दिखाई देने लगते हैं ।
अंग्रेजी बोलते-- फ्रैंच सीखते-
और हिन्दी को दुदकारते ।
मैं इन चेहरों को पहचान
नहीं पाती हूँ ।
और तभी मुझे कोने में
डरी-सहमी हिन्दी दिखाई देती है ।
मेरी ओर बहुत कातर दृष्टि से देखती--
उसकी आँखों का सामना
नहीं कर पाती हूँ ।
टूटते शब्दों से
दिलासा पहुँचाती हूँ ।
किन्तु हिन्दी दिवस पर
अपनी भाषा को
कुछ नहीं दे पाती हूँ ।
हिन्दी दिवस मनाने वालों-
आज एक संकल्प उठाओ-
अंग्रेजी भले ही सीखो-
पर अपनी भाषा को
मत ठुकराओ ।
उसे यूँ अपरिचित ना बनाओ ।
लेखिका :-शोभा महेन्द्रू

5 comments:

Unknown said...

आप हिन्दी को इतना कमजोर क्यों मान रही हैं. हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है, मैं जहाँ हूँ वहा पंजाबी को तरजीह दी जा रही है, इसका मतलब यह नही की हिन्दी से प्रेम नही. आप हिन्दी को लेकर नकारात्मक सोच में हैं . इसे सकारात्मक सोच में लें .

Unknown said...

आप हिन्दी को इतना कमजोर क्यों मान रही हैं. हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है, मैं जहाँ हूँ वहा पंजाबी को तरजीह दी जा रही है, इसका मतलब यह नही की हिन्दी से प्रेम नही. आप हिन्दी को लेकर नकारात्मक सोच में हैं . इसे सकारात्मक सोच में लें .

सुनील मंथन शर्मा said...

hindi ki durdasha ka achchha chitran.

वेद रत्न शुक्ल said...

हिन्दी की शिक्षिका होना गर्व का विषय है। हिन्दी नौकरी नहीं दिलाती तो क्या जीना सिखाती है। अंग्रेजीदां भी घुम-फिरकर हिन्दी का ही सहारा लेते हैं। हिन्दी बिना इस देश की कल्पना नहीं की जा सकती।

शोभा said...

यह कविता निराशा जनक नहीं है. यथार्थ का ईन है. मैं जरा भी निराश नहीं हूँ. केवल हिन्दी पढ़ने वालों की वेदना से परिचित करना चाहती हूँ.