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18.10.08

देशहित में है चुनाव का एक साथ होना

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मनोज कुमार राठौर
हमारे देश में चुनावी बजट का किसको ख्याल है? चुनाव आते ही सभी राजनीतिक दल अपने-अपने राग अलापने लगते हंै। लोकतंत्र की इस अर्थव्यवस्था में विधानसभा, लोकसभा चुनाव और अन्य छुट-पुट चुनाव होते रहते हैं। सभी चुनाव अलग-अलग समय अवधि में कराए जाते हैं जिसमें समय और धन की बर्बादी होती है। जनता भी बार-बार चुनावों में भाग लेने मे कतराती हैं इसीलिए हर साल वोटिंग का प्रतिशत कम होता जा रहा है। चुनाव आयोग को ऐसी व्यवस्था करना चाहिए जिसमें सभी चुनाव एक ही समय में हो सके। ऐसा करने से देश को आर्थिक रूप से सुदृढ़ता प्राप्त होगी। पिछले लोकसभा चुनाव में 1350 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि जब तीन बार चुनाव होते हैं तो उसमें 4350 करोड़ रुपए की खर्चा आता है। चुनाव आयोग यह 4350 करोड़ रुपए बचाकर इसे देश के विकास कार्यों में लगाया जा सकता है। चुनाव आयोग की आंखों पर यह काली पट्टी कब तक बंदी रहेगी?
चुनाव आयोग को 45 वर्ष पुरानी रणनीति अपनाना चाहिए। 45 वर्ष पहले तक देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ होते थे। चुनाव हुए, सरकारें बनीं और फिर पांच साल जनहित के कामों पर ध्यान। लेकिन आपातकाल के बाद बदली राजनीतिक परिस्थितियों ने इस परंपरा को इतिहास बना दिया और 1977 के बा से तो राजनीतिक प्रतिशोध के चलते राज्य विधानसभाओं को भंग करने की होड़ और सत्ता के पायदान तक पहंुचने के लए शुरू हुए दलबदल के खेल ने जल्दी-जल्दी चुनाव का ऐसा रास्ता खोला जो बंद होने का नाम ही नहीं ले रहा है। पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम ने पिछले महीने एक न्यूज चैनल के समारोह में कहा था कि सभी संवैधानिक संस्थाओं के चुनाव एक ही दिन में कराए जाने चाहिए। हालांकि सभी तरह के चुनाव एक ही दिन में कराने का विचार अव्यावहारिक लगता है, लेकिन यदि सभी राजनीतिक दल इस पर राजी हो जाऐ, तो यह सपना पूरा हो सकता है। यदि हम हर समय चुनाव में ही व्यस्त रहे तो विकास का लक्ष्य कैसे हासिल किया जा सकता है, यह सोचने की बात है। एपीजे अब्दुल कलाम भी चाहते है कि चुनावों को एक साथ कराना चाहिए जो विकास के लिए अति आवष्यक है। हमारे देश के पूर्व उप राष्ट्रपति भैंरोसिंह शेखावत ने कहा कि .........................
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1 comment:

Anonymous said...

भाई,
इसमें जागरण की लापरवाही तो कहीं दिखी नही, कि कहने से चुक गए,