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8.12.08

इस थोडी-सी बिना पढ़ी-लिखी जगह पर......!!











एक ऊँचे से ताड़ के पेड़ पर........घने पत्तों वाली लम्बी डालियों के बीच.......थोडी-सी जगह पर.......खेल रही हैं कुछ गिलहरियाँ......फुदकती....उछलती..... मचलती.... दौड़ती....भागती......जरा-सी ही जगह पर........बिना लड़े और झगडे....मिल-जुल कर खेल रही हैं ये बिना पढ़ी-लिखी ये गिलहरियाँ.......!!
......................कई पेड़ हैं एक साथ खड़े हुए.....थोडी-सी ही जगह पर.......एक दूसरे के साथ हँसते और गपियाते हुए......तरह-तरह के पत्तों वाले.....तरह-तरह के फूलों वाले.....सदियों से ये एक ही साथ रहते हुए.....जीवित और स्पंदित....बिना पढ़े-लिखे पेड़......!!
..................इसी थोडी-सी ही जगह में.......कई तरह के पंछी.....कई तरह के जीव-जंतु....बरसों से साथ-साथ ही रहते हैं.......हिल-मिल कर....खेलते-खाते....हँसते- बतियाते......अपनी उम्र पूरी करके मर जाते.........मगर किसी ने भी आज तक यह नहीं कहा..........हमारी है....या हमारे बाप-दादा की है......या हमारे बाद यहाँ रहेंगे हमारे बच्चे........बिना पढ़े-लिखे ही.........!!
......................कितने ही मौसम बदलते हैं.......बदले हैं.......मौसमों के साथ फल-फूल भी....जीव-जंतु भी.....मगर माहौल तनिक भी नहीं बदलता.......वैसा ही बना रहता है....तरो-ताज़ा......सदाबहार.......हरा-भरा.....खुशनुमा.......!!......टी.वी.पर एक मिनट में दर्जनों चैनल बदलते हम.........यहाँ एक ही दृश्य को देखते मिनट-घंटे-दिन तो क्या.....इक पूरी जिन्दगी ही निकाल दें........एक ही दृश्य को निरखते हुए......!!
.............................बिना पढ़े-लिखे पहाड़.....बिना पढ़े-लिखे जीव-जंतु.....बिना पढ़े-लिखे पेड़.......और बिना पढ़ा-लिखा आसमा.....रह रहे हैं इसी बिना पढ़ी-लिखी पृथ्वी पर......आपनी-अपनी जगह पर.....बिना एक दूसरे का अतिक्रमण किए हुए.....बिना एक-दूसरे से झगडे हुए........किसी के बाप-दादा की नहीं हुई ये ज़मीन..........किसी ने भी इसे कभी अपना भी नहीं कहा........मगर जमीन का बिना इक छोटा-सा टुकडा खरीदे हुए भी........पृथ्वी को जिया है इन्होने अपनी आत्मा की तरह.......धरती के हर इक स्पंदन को......इन्होने जिया है अपनी हर-इक आती-जाती साँस की तरह........!!
.................गिलहरियों का खेल अभी तक चल ही रहा है.........इस पेड़ से उस पेड़....इस डाली से उस डाली.........पंछी आ-जा रहे हैं उड़-उड़ कर वापस अपनी ही छोटी-सी जगह पर.......और आश्चर्य तो यह है कि तरह-तरह के ये पेड़-पौधे.....पक्षी....जंतु.....पहाड़....नदी....आसमा....धरती......सब समझते हैं एक-दूसरे की भाषा.....बिना पढ़े-लिखे ही.....!!
.................यहीं पास ही खड़ी हुई हैं......कुछ निर्जीव बिल्डिंगे.......और बनने को तैयार हैं कुछ और नई भी......कई प्लाट तो काट लिए गए हैं.....और कुछ काटे जाने वाले भी हैं.......इसी थोडी-सी जगह पर हैं......ऊपर बताये गए पेड़....पहाड़.....जंतु....पंछी.....नदी....और ख़ुद यह जमीन भी......!!..........!!........!!
..............बस कुछ ही समय में ख़त्म हो जाने को हैं....ये बिना पढ़े-लिखे लुभावने दृश्य........!!.......!!

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