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2.12.08

क्या है जगन्माता का स्वरूप



विनय बिहारी सिंह
जगन्माता या काली माता या दुर्गा माता का स्वरूप क्या है? यह हमेशा से उत्सुकता का विषय रहा है। क्या उनका सिर्फ वही रूप है जिसे हम चित्रों में या मूर्तियों में देखते हैं? या कि इससे इतर भी कोई रूप है। जो रूप हम देखते हैं आखिर वह किसने बनवाया। काली के अनन्य भक्त रामप्रसाद या रामकृष्ण परमहंस को जगन्माता के दर्शन हुए थे। वे अपनी साधना के प्रारंभिक दिनों में मां, मां, मां कह कर लोटते रहते थे। एक दिन वे दक्षिणेश्वर के काली मंदिर में जगन्माता की मूर्ति के सामने रो कर दर्शन देने की प्रार्थना कर रहे थे। अचानक उन्होंने कहा- अगर दर्शन नहीं दोगी तो मैं तुम्हारे खड्ग से अपनी गरदन काट लूंगा। वे रोते हुए आगे बढ़े तभी उन्हें मां का दिव्य रूप दिखाई पड़ा। वह रूप कैसा था। दिव्य प्रकाश जिसके आलोक में रामकृष्ण परमहंस गहरी समाधि में चले गए। मां काली का रूप कैसा है? रामकृष्ण परमहंस कहते थे- मां काली, काले रंग की थोड़ी ही हैं। वे काल की अधिकारिणी हैं, इसीलिए उनका नाम काली है। परमहंस योगानंद ने भी लिखा है-कौन कहता तू है कालीमेरी मां जगदंबेलाखों रवि, चंद्र तेरी काया से हैं चमकते।। मां काली के अनन्य भक्तों ने उनकी व्याख्या कैसी की है? मां के बाईं ओर वाले एक हाथ में खड्ग है जो बुरी प्रवृत्तियों के नाश के लिए है। दुष्टों के नाश के लिए है। बाईं ओर वाले ही दूसरे हाथ में कटा हुआ मुंड है। साधक कहते हैं कि यह मानव मस्तिष्क का प्रतीक है। जब तक अहंकार का नाश नहीं होगा, जगन्माता दर्शन नहीं देंगी। मां के दाहिनी ओर वाला ऊपरी हाथ अभय मुद्रा में है। यानी वे कहती हैं- मेरे भक्तों, तुम्हें किसी बात का डर नहीं है। निर्भय रहो। दाहिनी ओर का निचला हाथ आशीर्वाद दे रहा है। फलो- फूलो। लेकिन क्या मां सहज ही दर्शन दे देती हैं? नहीं। हम लोग अपनी पत्नी, बच्चों या करीबी लोगों के हित के लिए व्याकुल होते हैं, इसके कई गुना अगर मां के दर्शन की व्याकुलता हो तो वे तुरंत दर्शन देंगी। पहले जब बच्चा रोता है तो मां उसे खिलौने देकर बहला देती है और अपना काम करने लगती है। लेकिन जब बच्चा खिलौना नहीं, सिर्फ मां को चाहता है तो वह समझ जाती है कि बच्चे को अब फुसलाना मुश्किल है। तब वह दौड़े- दौड़े आती है। यानी उनके दर्शन के लिए चरम भक्ति, चरम व्याकुलता होनी चाहिए। यह नहीं कि मां की पूजा भी हो रही है और संसार का प्रपंच भी चल रहा है। तब तो वे मान लेंगी कि बच्चे को सिर्फ खिलौना ही चाहिए। खिलौने तो उनके पास अनंत हैं। लेकिन एक बार उन्हें प्रेम से पुकारने पर वे दौड़ कर आती हैं। लेकिन इसके लिए मां का सच्चा भक्त होना पड़ेगा। संपूर्ण समर्पण करना पड़ेगा। मेरी सब कुछ मां ही हैं, और कोई नहीं। यह धारणा जब आपके दिलो- दिमाग पर जड़ जमा लेगी और आप जब दिन रात व्याकुलता से मां- मां पुकारने लगेंगे तो वे आपको अपने गोद में बैठा लेंगी। कई साधक भगवान कृष्ण और काली को एक ही मानते हैं। कई लोगों के तो नाम भी कालीकृष्ण रखा जाता है। रामकृष्ण परमहंस कहते थे- काली और कृष्ण एक ही हैं। आइए गीता का एक उद्धरण लें। अर्जुन जब भगवान श्रीकृष्ण से अपने दिव्य रूप दिखाने को कहते हैं तो भगवान उन्हें वह रूप दिखाते हैं। गीता के ११ वें अध्याय के ८ वें श्लोक में भगवान कहते हैं- न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा। दिव्यं ददामि ते चक्षुः पश्य मे योगमेश्वरम्।।( परंतु मुझको तू इन प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने में निसंदेह समर्थ नहीं है, इसी से मैं तुझे दिव्य अर्थात अलौकिक चक्षु देता हूं, उसी से तू मेरी ईश्वरी. योगशक्ति को देख।) यह वे उस अर्जुन को कहते हैं जिसे वे अपना ही रूप मानते हैं (देखें गीता का अध्याय १० का ३७ वां श्लोक जिसमें वे कहते हैं कि मैं पांडवों में धनंजय अर्थात तू हूं)। यानी अपनी जैसी विभूति को भी असली रूप दिखाने के लिए भगवान दिव्य आंख देते हैं। तो सामान्य आदमी कैसे असली रूप देख सकता है? लेकिन साधकों का कहना है कि चरम भक्ति ही वह दिव्य आंख है जिससे भक्त भगवान को देख सकता है। चूंकि अर्जुन उस समय शोक और दुविधाग्रस्त था, इसलिए उसे दिव्य की जरूरत पड़ी। वरना यह दिव्य आंख भगवान सहज ही अपने भक्त को दे देते हैं। मनुष्य के शरीर को क्षेत्र कहते हैं। एसा गीता के १३वें अध्याय में है। क्षेत्र के तहत पंच महाभूत- आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी का सूक्ष्म भाग, अहंकार, बुद्धि और मूल प्रकृति के अलावा दस इंद्रियां- कान, त्वचा, आंख, जीभ और नाक, वाक, हाथ, पैर, लिंग और गुदा। एक मन, पांच इंद्रियों के विषय- शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गंध तथा- इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, स्थूल देह, चेतना, धृति (यानी आपके मन ने क्या पकड़ रखा है) - इसी का नाम मनुष्य का शरीर है, जिसे क्षेत्र कहा जाता है। यह क्षेत्र जितना निर्मल होगा, भक्ति उतनी ही दृढ़ होगी। अटल श्रद्धा, भक्ति और विश्वास से ही मां या जगन्माता के दर्शन होते हैं, ऐसा साधकों ने बताया है। दुर्गा माता का रूप भी विभिन्न दिव्य अस्त्र- शस्त्रों से लैस और शेर पर सवार दिखाया जाता है। ये शस्त्र सभी देवताओं ने असुर से लड़ने के लिए दिए थे। लेकिन साधकों का कहना है कि जगन्माता को कोई उधार दे ही क्या सकता है। वे तो स्वयं ब्रह्मांड की स्वामिनी हैं। उनके पास क्या नहीं है। जो अनंत ब्रह्मांडों को एक इशारे पर नचाती हैं, उन्हें किसी से कुछ भी उधार लेने की क्या जरूरत है। इसीलिए तो भगवान कृष्ण गीता में कहते हैं- सर्व धर्म परित्यज्ये, मा मेकम शरणम ब्रज। अहम त्वा सर्व पापेभ्यो, मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।(हे अर्जुन, तुम सारे धर्मों को त्याग कर, सिर्फ मेरी शरण में आ जाओ। मैं तुम्हें सारे पापों यानी बंधनों से मुक्त कर दूंगा, चिंता मत करो।) मां काली भगवान शंकर की छाती पर पैर रख कर अपनी जीभ बाहर किए हुए हैं। यह क्या है? साधक कहते हैं- भगवान शंकर दिव्य पुरुष के प्रतीक हैं और मां काली दिव्य शक्ति की प्रतीक। दिव्य पुरुष बिना दिव्य प्रकृति के उत्पत्ति, पोषण और विनाश का काम नहीं कर सकता। अन्य साधक कहते हैं- मां की जीभ मनुष्य के भीतर के षड्चक्रों को जगाने के लिए निकली है। षड्चक्र यानी- मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आग्या चक्र और सहस्रार चक्र। मां अपनी जीभ से इन चक्रों को खोलती हैं।

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