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8.12.08

ईश्वर अर्थात शांति और प्रेम

विनय बिहारी सिंह

परमहंस योगानंद ने कहा है कि ध्यान करते समय ईश्वर को शांति, प्रेम या आनंद में से किसी रूप में अनुभव कीजिए। लेकिन इसमें से किसी एक विचार पर ही केंद्रित रहिए। धीरे- धीरे आप उसी रूप में घुल मिल जाएंगे। उन्होंने कहा है- सात्विक मनुष्य ईश्वर का ही प्रतिरूप है। अगर आप भीतर से निर्मल हैं तो सब कुछ निर्मल ही दिखेगा। यह निर्मलता आए कैसे? ईश्वर के प्रति समर्पण से। ईश्वर के प्रति समर्पण कैसे हो? ईश्वर भक्ति से। भक्ति कैसे आएगी? ईश्वर से प्रेम करने पर। लेकिन आप पूछ सकते हैं- यह प्रेम कैसे पैदा हो? इसका उत्तर यह है कि यह पैदा करना पड़ेगा। कबीर दास ने कहा है- प्रेम न खेतो नीपजे, प्रेम न हाट बिकाय। प्रेम न खेत में पैदा किया जा सकता है और न इसे बाजार में खरीदा जा सकता है। इसे तो खुद के भीतर पैदा करना होगा।
रामकृष्ण परमहंस कहते थे कि अपनी पत्नी, बच्चे या मां- बाप के लिए संसार के लोग कितना रोते हैं। लेकिन ईश्वर के लिए कोई नहीं रोता। जबकि हमारी सांस तक ईश्वर की ही कृपा से चलती है। ईश्वर से डर कर नहीं, अपना प्रियतम जान कर प्रेम करना होगा। भगवान हमारे हैं। वे हमारे मां, पिता, मित्र और भाई सबकुछ हैं। वे हमारे रक्षक हैं, करुणासागर हैं, कृपासिंधु हैं, सर्वग्याता हैं और सर्वशक्तिमान हैं।

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