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10.12.08

भाई लोग कुछ ज्यादा ही सोच गए।

भाई लोग कुछ ज्यादा ही सोच गए। इतना ज्यादा की सोशल से सरोकार ही नहीं रहा। अब सोशल यांत्रिकी की हवा निकल गई है, यह भाई लोगों की समझ में आ गया होगा। मध्यप्रदेश, राजस्थान और दिल्ली में हाथी को झूमाने की बात करने वाले बड़ी शेखी मार रहे थे। मध्यप्रदेश में दो माह तो जैसे उत्तरप्रदेश की पूरी सरकार ही उतार दी गई थी। शेखीखोरों में भी खूब ऊंची-ऊंची मारी। एक सबसे बड़े अखबार के बड़े रिपोर्टर ने तो मध्यप्रदेश के एक पूरे हिस्से में हाथी के झूमने के दावे कर डाले थे। सच्चाई सामने है। बसपा प्रदेश में वह नहीं कर सकी जिसके बूते बहनजी दिल्ली की बारी देख रही थीं। मैने लगभग दो माह पहले ही मायावती के सोशल इंजीनियरिंग का मध्यप्रदेश के चुनाव में होने वाले हश्र के बारे में इसी ब्लाग में लिखा था। तब मैने कहा था कि इसका बहुत बड़ा असर पड़ने नहीं जा रहा है। बात साफ है कि इस प्रदेश में दलित आज भी कांग्रेस से अपना जुड़ाव महसूस करता है। वही हुआ भ। मैं अपनी इस बात तो एक उदाहरण से समझाने की कोशिश करूंगा। मध्यप्रदेश का एक जिला है मुरैना। बीते चुनाव में इस इलाके में बसपा का खासा जोर रहा था। एक बार तो इस जिले की तीन सीटों पर बसपा ने कब्जा किया था। इस बार ग्वालियर और चंबल दो संभागों को मिलाकर बसपा चार सीटे ही जीत पाई है। मुरैना जिले की सबलगढञ सीट पर बसपा ने इस बार नौजवान चंद्रप्रकाश शर्मा को मौका दिया था। गणित भी ठीक था। इस सीट पर अगर दलित और ब्राह्मण मतदाता को जोड़ दिया जाए तो बसपा की जीत पक्की थी। मगर हुआ उलटा। बसपा इस सीट पर तीसरे नंबर पर रही। सीट गई कांग्रेस के उस प्रत्याशी के पास जिसे हमारे उस बड़े अखबार के बड़े पत्रकार कमजोर मान रहे थे। वोट का आंकड़ा भी अप्रत्याशित रहा। इसका कारण रहा दलित वोट का कांग्रेस के पाले में झुकाव। कमोवेश यही हाल जौरा का है। यहां बसपा जीती जरूर लेकिन सोशल इंजीनियरिंग की वजह से नहीं। इस सीट पर कुशवाहा समाज का बसपा का जबरदस्त समर्थन रहा। यही इस बार भी हुआ है। मध्यप्रदेश में बसपा ने इस चुनाव में सात सीटे जीती हैं। बसपा इसे अपनी बड़ी जीत मान रही है। हालांकि इतनी सीटे वह प्रदेश में पहले भी जीत चुकी है। यह आंकड़े उत्साहित करने वाले तो कतई नहीं हैं। मध्यप्रदेश की जनता ने एक बार फिर दिखा दिया है कि वह देखती सबकी है लेकिन करती हमेशा मन की है। उनके दिलों में राजनेता उत्तरप्रदेश की तरह जातीय विद्वेष की खटास और जीभ लपलपाती सत्ता का अंग होने की लिप्सा नहीं भर सके हैं। कह सकते हैं कि अभी बहन जी को और इंतजार करना होगा। वैसे भी जहां-जहां सपा है बस वहीं बसपा है। कारण बसपा और सपा को एक जैसी जमीन से ही राजनीति की खुराक मिलती है जो कमोवेश अभी मध्यप्रदेश में नहीं है।

1 comment:

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

योगेश भाई,ये सोशल मैकेनिक्स का अभी हजारों साल विकास हो तब कहीं जाकर भारत के लोगों के दिमाग राजनेताओं की समझ में पूरी तरह से आयेंगे। बढ़िया आलेख जमाया है आपने...