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14.4.09

मुद्दे पर मीडिया:संसदीय चुनाव और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया


-भय और भूख से नाराज मतदाता ,सतही मनोरंजन से गिरती जनतंत्र की गरिमा


-आवेश तिवारी

भूख और भय से निराश लोक,थका हुआ निस्तेज तंत्र और सर्वग्रासी बाजार में अपने उत्पाद को बेचने के लिए आतुर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया मीडिया का काम सिर्फ आम आदमी तक खबरें पहुँचाना ही नहीं रह गया है बल्कि वो ख़बरों से खेलता है उनको पैदा करता है और उनको खुद के हिसाब से इस्तेमाल भी करता है l चुनाव के दौरान आई .पी.एल मैचों को जिस तरह से अनिवार्य बनाया गया वह हैरत में डालने वाला था ,एक तरफ देश के आम लोगों के सर्वोच्च मताधिकार का महोत्सव तो दूसरी और नीलाम हुए क्रिकेटरों की सौ फीसदी बाजारू स्पर्धा राजनीति के दिग्गज देश में नयी व्यवस्था के तहत विकास,आतंकवाद ,विकास जैसे मौलिक मुद्दों के समाधान की कोशिश कर रहे हैं राष्ट्र का इंतजाम राष्ट्र कर रहा है चुनाव ,क्रिकेट या टी.वी पर आने वाले तमाम मनोरंजन प्रोग्राम्स की भांति वैकल्पिक नहीं है
दरअसल सर्वग्रासी इलेक्ट्रॉनिक और कुछ अग्रणी प्रिंट मीडिया चाहती थी कि चुनावों के दौरान आई.पी.एल भारतीय शहरों में चले तथा उनमे राजनैतिक दलों के विज्ञापन परोस कर धन बटोरा जाए ,विफल होने पर इसी मीडिया लाबी ने दक्षिण अफ्रीका में मैच कराने की लाबिंग शुरू कर दी और ये प्रचारित करना शुरू कर दिया कि -भारत में क्रिकेट मैचों की सुरक्षा का दम नहीं है ,एक निहितार्थ ये भी कि देश में आई.पी.एल न कराने से क्रिकेटप्रेमियों में आक्रोश होगा ,जिसका खामियाजा सभी राजनैतिक दल (जिनकी सरकारें हैं )भुगतें संयोग से जहाँ आई.पी.एल हो रहे हैं ,वह साउथ अफ्रीका नस्लभेद और रंगभेद के लिए चर्चित रहा है ,जहाँ गांधी अपमानित हुए ,अभी एक सप्ताह पहले इसी देश ने बौध धर्मगुरु दलाई लामा को अपने देश आने से मना किया है दरअसल हो ये रहा है की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कंटेंट को लेकर दायित्वबोध को धत्ता बताते हुए टेस्ट बिल्डिंग का काम कर रहा है ,इसे हम खबरी अराजकता कहते हैं
दरअसल सच ये है कि मीडिया की सोच चुनावों में भी सतही मनोरंजन देते रहने से बने चरित्र से ऊपर उठ नहीं पाती ,चुनाव में जनता की बुनियादी समस्याओं पर राजनैतिक पार्टियों की जवाबदेही को सुनिश्चित करने के बजाय ,पुरे माहौल को मनोरंजक बनाने की हर संभव कोशिश की जा रही है ,इलेक्शन कवरेज में भी पॉलिटिकल गासिप्स अधिक सुनने को मिल रहे हैं चाहे वो बुढिया और गुडिया को लेकर मोदी या प्रियंका की बतकही हो या फिर राबडी को नीतिश को दी गयी गाली हो प्रायः सभी चैनलों ने अंग्रेजी और हिंदी की पकाते हुए 'हिंगलिश 'में विशेष चुनाव कार्यक्रम शुरू किये हैं ,इन पर नजर डालें तो स्पष्ट होगा कि किस तरह लोकतंत्र का मजाक उडाया जा रहा है चुनाव आयोग द्वारा थोपी गयी पाबंदियों से जो कम्युनिकेशन गैप पैदा हुआ है ,उसको मीडिया भर सकती थी ,ये क्या कम अचरज भरा है घरों पर झंडे लगाने कि पाबंदी है चैनलों में कुछ भी दिखने की छूट है यह 'मीडियाटिक्स ' है मीडिया खुद अपना ही मखौल उड़ा रही है क्यूंकि भूख और भय से नाराज और निराश भारतीय नागरिकों को राजनैतिक धर्म के साथ यह मजाक रास नहीं आ रहा है हाँ ,मतदाताओं को जगाने का काम समयोचित है
इंडिया टुडे ग्रुप के चैनल 'तेज; ने एक प्रोग्राम बनाया है 'इंडियन कुर्सी लीग 'इसमें कांग्रेस को किंगकांग ,भाजपा को वेटिंग बैरिअर्स ,बसपा को जम्बो जेट आदि कहा जाता है छपरा में नीतिश के बारे में राबडी के अपशब्द की स्टोरी को कहा गया कि;छपरा कि पिच पर सुर्रा फेकने वाली बालर ने ऐसा बाउंसर फैंका .........यह प्रोग्राम चुनाव की पैरोडी दिखाने के प्रयास में चुनाव को ही क्रिकेट कि पैरोडी बना रहा है एन.डी.टी.वी ने 'इलेक्शन एक्सप्रेस शुरू किया तथा एक नया नाम विश्व के वृहत्तम निर्वाचन को दिया -'बिगेस्ट रियलिटी शो 'अभी तक हम रियलिटी शो का मतलब नाच -गाना ,अन्ताक्षरी आदि समझ रहे थे यह लोकतंत्र का उपहास नहीं तो और क्या है ?बार बार ये चैनल चुनाव को युद्ध कहते रहे हैं आज तक ने शुरू किया 'बोल इंडिया बोल' , देश के १० शहरों में ४ हजार लोगों से बात करके चुनाव सर्वेक्षण के नतीजे परोसने शुरू कर दिए हैं एक शहर में सिर्फ ४०० लोगों से कथित तौर पर प्रश्न पूछ कर यह चैनल बक रहा है कि लगभग ५६ फीसदी लोग संप्रग की सरकार और मनमोहन सिंह को प्रधानमन्त्री चाहते हैं जबकि मात्र ३५ फीसदी लोग राजग कि सरकार और अडवानी को प्रधानमन्त्री देखना चाहते हैं चैनल कहता है कि उसके वोट गुरु अन्य 27 शहरों में सर्वे करेंगे मतलब दस हजार और लोगों से पूछ लेंगे तब तक काउंटिंग के पहले ही मनगढ़ंत नतीजे सुनाते रहेंगे सर्वाधिक खेदपूर्ण ये है की इस तरह के सभी चुनावी विश्लेषण शहरी मतदाता को केंद्र में रखकर किये जाते हैं जिन्हें ये चैनल्स जागरूक मतदाता कहता है जबकि सच्चाई ये है कि इन्ही जागरूक मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा गर्मी और छुट्टी का बहाना बना कर वोट तक डालने नहीं ,जबकि आज भी ग्रामीण क्षेत्रों का मतदाता सर्वाधिक वोटिंग करता है और इसी की से चुनावी नतीजे बनते बिगड़ते हैं ऐसे में तीन चौथाई आबादी को अलग थलग करके किया गया कोई भी सर्वेक्षण भला कैसे वैज्ञानिक हो सकता है ?कहीं ये सिर्फ चैनलों के राजनैतिक धर्म के पालन की युक्ति तो नहीं ?
अब तक के चुनावी कवरेज के दौरान मीडिया ने अपराधियों और बाहुबलियों के खिलाफ अभियान चलाकर सर्वाधिक सराहनीय काम किया ,लेकिन इन सबके बीच पूरी राजनीति को भी कटघरे में खडा करने का काम भी किया गया मैं नाम नहीं लेना चाहूँगा लेकिन शायद ही कोई ऐसा हो जिसे इन चैनलों ने अपने हितों की कसौटी पर न कसा हो अब ये तो नहीं है न कि सारे प्रत्याशी अपराधी हैं और इनके लिए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को हाँथ में दरोगा की तरह डंडा लेकर खडा होना आवश्यक हो गया हो ,हम ये भूल जाते हैं की जो भी उम्मीदवार जीतेगा वो कल को देश की लोकसभा का हिस्सा होगा एक प्रोग्राम में प्रसिद्ध पत्रकार नलिनी सिंह ने कहा कि ;जो नेता १०० रुपये के नोट बाँट रहे हैं उन्हें तो आपने दिखाया किन्तु जो धन प्रचार के मकसद से दिया गया है उसके बारे में कुछ क्यूँ नहीं बोलते ?ऐसा तो नहीं है न कि सिर्फ चोर चुनाव लड़ रहे हैं और चोर ही जीतते हैं ये चैनल्स भूल जाते हैं कि लोकतंत्र कि व्यवस्था हमें अनेक कुर्बानियों से मिली है ,इसकी गरिमा ,मतदाताओं के मान और सत्ता परिवर्तन कि अहिंसक क्रांति को सतही बाजारी नजरिये से तौलना शर्मनाक है वैश्विक परिस्थितियों के सन्दर्भ में कहें तो मीडिया को चाहिए 'दस कबीर जतन से ओढी ,ज्यों के त्यों धरी दिनी चदरिया ...

1 comment:

डॉ. जेन्नी शबनम said...

आवेश जी,
आपके लेख से बहुत सारी सच्चाई, जो मीडिया से सम्बंधित है, जानने को मिली| ये बिल्कुल सच है कि आज ख़बरों को पैदा किया जाता है और जिस तरह से दिखलाया जाता, जनता को जागरूक नहीं बल्कि भ्रमित किया जाता है| और अपने फायदे के लिए गुमराह जनता को दिशा देना ज्यादा आसान होता, चाहे चुनाव का मुद्दा हो या सामाजिक सरोकार का| सराहनीये लेख के लिए शुभकामनाएं|