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7.11.09

हमसे ओझल हो गया पत्रकारिता जगत का सितारा


अभी कल ( पांच नवंबर) रात की ही बात है जब सचिन ने अपना ४५वां शतक और अंतरराष्ट्रीय एकदिवसीय में १७ हजार से ज्यादा का आंकड़ा पार किया। हमें अब सचिन की उपलब्धि से ज्यादा उत्सुकता इस बात की थी कि भारत की मामूली रनों से हार और सचिन की शानदार बल्लेबाजी पर प्रभाषजी क्या लिखेंगे ? हो भी क्यों नहीं । खेल वह भी क्रिकेट पर उनके बेबाक नजरिया के कायल जो हम ठहरे। अब हमें क्या पता था कि प्रभाषजी हमें धोखा देने वाले हैं ? शायद ठीक उसी वक्त जब सचिन ने अपना १७००० रन का आंकड़ा पार किया, प्रभाषजी ने भी हमसे विदा लेने की तैयारी कर ली। दिल में असह्य पीड़ा हुई और पत्रकारिता जगत का यह सितारा हमसे ओझल हो गया।
जनसत्ता कोलकाता में पाच नवंबर को मैं रात की पाली में था। कोलकाता में जनसत्ता का संस्करण रात १०.३० से ११.०० बजे के आसपास छूट जाता है। संस्करण छोड़ने के बाद अपने वरिष्ठ सहयोगी पलाश विश्वास के साथ घर लौटे। सुबह देर से जगा तो मेरी बेटी अरूणा ने मुझे बताया कि प्रभाष जोशी नहीं रहे। उसकी मोबाइल पर न्यूज अलर्ट में यह खबर आई थी। खबर सुनते ही दिल भर आया। दुख हो भी क्यों नहीं। आखिर पत्रकारिता की उनकी कार्यशाला से काफी कुछ सीखा और आत्मीयता भी मिली थी।

१९९१ से जनसत्ता का कोलकाता संस्करण निकलना शुरू हुआ और तब से बतौर मुख्य संपादक जब भी कोलकाता उनका आना होता था तो साथियों से मिलकर उनकी हौसलअफजाई करना नहीं भूलते थे। बड़े हल्के-फुल्के माहौल में बातचीत करते हुए लगभग हर किसी का हालचाल पूछ लेते थे। यह इत्तेफाक ही है कि अपने परमप्रिय और इंडियन एक्सप्रेस के मालिक रामनाथ गोयनका की पुण्यतिथि पांच अक्तूबर के ठीक एक महीने बाद ही पांच नवंबर को प्रभाषजी का अवसान हुआ। यह सिर्फ तारीखों का मेल नहीं है। दोनों शख्शियतों ने मिलकर सिद्धांतों की लड़ाई लड़ी। १९७५ में आपातकाल के दिनों में प्रभाषजी भी इंडियन एक्सप्रेस के उन योद्धाओं में से एक थे जिन्होंने प्रेस की आजादी की लड़ाई लड़ी।
कभी सिद्धांतो से समझौता नहीं करने की बेजोड़ मिशाल थे प्रभाषजी। छोटी से छोटी बातों का सिद्धांत के लिहाज से खयाल रखते थे। इसका एक वाकया अभी तक जेहन में मौजूद है। बात १९९१ की ही है। दिल्ली में हुई परीक्षा के बाद पांच लोगों ( पलाश विश्वास, डा. मान्धाता सिंह, सुमन्त भट्टाचार्य, दिलीप मंडल और संजय शर्मा ) को साक्षात्कार के बाद कोलकाता भेजा गया था। इसके बाद से कुछ लोग अपने वेतनमान में सुधार के लिए कहा था। तो हम लोगों के अलावा कृपाशंकर चौबे, समाचार संपादक अमित प्रकाश के साथ होटल ग्रांड में प्रभाषजी से मिलने गए थे। हम भी नीचे लाउंज में बैठे थे तभी विवेक गोयनका जी और मनोज संथालिया जी ( दोनों इंडियन एक्सप्रेस अखबार समूह के मालिक ) भी प्रभाष जी से मिलने पहुंचे। प्रभाष जी चाहते तो उचित यही था कि हम लोगों को बैठने को बोलकर दोनों लोगों से पहले मिल लेते मगर उन लोगों को इंतजार करने को बोलकर पहले साथियों को बुलवा लिया। तसल्ली से बात भी की। ऐसा करने से हो सकता है कि हमारे मालिकान को बुरा भी लगा होगा मगर हमें बुलाए थे मिलने के लिए तो पहले साथियों से ही मिले। ऐसे कार्य या पंगे उन्होंने हमेशा किए जिसके कारण चाहे वह बजरंग दल हो, अपना प्रबंधन हो, या साहित्यकार सभी से उनकी वैचारिक व सिद्धांतो की लड़ाई होती रहती थी। यह अलग बात है कि संभवतः इस अक्खड़पन के कारण वैचारिक विरोध उन्हें ज्यादा झेलना पड़ा। उनका सती प्रथा के पक्ष में बोलने का मुद्दा भी ऐसा ही एक उदाहरण है।
हिंदी पत्रकारिता के युग पुरूष प्रभाष जोशी इन सबसे अलग हिंदी पत्रकारिता में नवीन प्रयोगों के लिए सर्वदा याद किए जाएंगे। देशज शब्दों का इस्तेमाल सबसे अनूठा प्रयोग साबित हुआ। बहरहाल मैं दुख के मौके पर कोई समीक्षा करने की मनःस्थिति में नहीं हूं इसलिए अपनी इन्हीं यादों के साथ पत्रकारिता के प्रेरणास्रोत प्रभाषजी को नम आखों से श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं।
उपर पीडीएफ में वह सामग्री संलग्न है जिसे उस अखबार जनसत्ता ने छापा है जिसके संस्थापक संपादक थे प्रभाष जोशी। यहीं पर जनसत्ता के मौजूदा कार्यकारी संपादक ओम थानवी की श्रद्धांजलि के साथ देशभर के पत्रकारों के भी जो शोक जताने की खबर दी है। ये खबरें जनसत्ता के दिल्ली संस्करण के पेज एक और आठ पर छपी हैं। इसके अलावा प्रभाष जी पर लिखे गए कुछ लेखों का लिंक भी यहां दे रहा हूं। कोलकाता के हिंदी के सांध्य अखबार महानगर और छपते-छपते ने भी प्रभाष जी के निधन को अखबार की सबसे बड़ी खबर बनाकर श्रद्धांजलि दी है। कोलकाता का भी पत्रकार और साहित्यकार प्रभाषजी के निधन से मर्माहत है। दो दिन बाद प्रभाष जी कोलकाता एक कार्यक्रम में आने वाले थे मगर नियति ने कोलकाता वालों से यह मौका छीन लिया ।

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