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7.11.09

बहुत याद आएंगे प्रभाष जी

प्रभाष जी नहीं रहे इस खबर ने चौंका दिया। अभी तो उनके बीमार होने की कोई खबर भी नहीं आई थी। फिर अचानक, मगर प्रभाष जी तो इसी तरह चौंकाते रहे हैं। बात 1997 की है जब मैं माखनलाल प^कारिता विश्वविद्यालय में पढ़ रहा था। तब यहां एक बड़ा आंदोलन हुआ। आंदोलन िवस्वविद्यालय के साधर को। वहां चल रही मनमानी पर रोक की खातिर। में समझता हूं कि यह एक ऐसा आंदोलन था जिसने विश्वविद्यालय के बेहतर भविष्य की बुनियाद रखी। ऐसी बुनियाद जिसकी दम पर विश्वविद्यालय की गिनती आज देश के नामी मीडिया संस्थानों में की जाती है। तो इसी संस्थान की कर्ताधर्ता टीम के एक वरिष्ठ सदस्य थे प्रभाष जी। तब प्रभाष जी एक कार्यक्रम के सिलसिले में जस्टिस पीवी सावंत के साथ आये थे। मैं अपने साथियों के साथ प्रभाष जी से मिलने और उन्हें विश्वविद्यालय की मौजूदा दशा से अवगत कराने के लिए गया। साथ में आंदोलन के अगुआ प्रमोद झा, हमारे वरिष्ठ साथी जयंत तोमर और गुरुदेव कमल जी थे। प्रभाष जी तक किसी होटल में न ठहरकर जनसत्ता के तत्कालीन ब्यूरो चीफ महेश पांडे जी के आवास पर ही रुके थे। हम जब उनसे मिलने पहुंचे तो वह रसोई में थे। महेश को हमारे आने की खबर थी और उन्होंने प्रभाष जी को इस बारे में बता दिया था। महेश जी हमारे आंदोलन को सपोर्ट कर रहे थे और प्रभाष जी पता नहीं किसने कह दिया कि यह आंदोलन एबीवीपी की उपज है। बहरहाल जब हम पहुंचे तो प्रभाष जी रसोई में पिले पड़े थे। पता चला कि बैगन का भर्ता बना रहे हैं। मैं चौक गया। तब तक मुझे पता नहीं था कि वह पाक कला में भी उतने ही निपुण थे जितना भाषा कला में। दूसरे दिन वह हमारे विश्विद्यालय भी आये थे। हमारे चीफ निदेशक अरविंद चतुर्वेदी से बात करने। जब तक बात चली हम लोग बाहर क्रिकेट खेलते रहे। हमे लगा कि आज हमारी और विश्वविद्यालय की समस्या का कुछ हल जरुर निकलेगा। प्रभाष जी की अरविंद जी से क्या बात हुई यह तो पता नहीं लेकिन जब वह लौटे तो हम लोगों को क्रिकेट खेलता देख बड़े खुश हुए और खुद भी धोती कुर्ता पहने हम लोगों के साथ क्रिकेट खेलने लगे। यह मेरे दूसरी बार चौकने की बारी थी। जब मुझे बताया गया कि वह रणजी खेल चुके हैं। क्रिकेट को लेकर वह दीवाने थे। प्रभाष जी से फिर एक बार जयपुर में मुलाकात का मौका मिला। तब वह किसी कार्यक्रम के सिलसिले में आये थे। यहां भी मेरे साथ प्रमोद झा थे। तब हमने प्रभाष जी से मिलने की खूब कोशिश की। मैं जयपुर भास्कर में तब काम कर रहा था। प्रभाष जी ने मिलने का समय भी दिया था लेकिन मुख्यमं^ी भैरोंसिंह शेखावत के लावलश्कर से घिरने होने के कारण मुलाकात नहीं हो सकी।
मुझे याद है कि यह वह समय था जब सूचना का अधिकार हासिल करने के लिए गोष्ठी, जागरुकता और लड़ाई का दौर जारी था। भोपाल से लेकर बस्तर तक अभियान चल रहा था और इस अभियान में प्रभाष जी की सक्रिय सहयोग लगातार मिल रहा था। जहां भी गोष्ठी होती वह जरूर मौजूद होते। उनका दृढ़ मत था कि इस अधिकार के बिगा लोकतं^ के मायने अधूरे हैं। हर तरह की कट्टरता और अपनी बात कहने के लिए हठी यह शख्स लोकतं^ की दृढ़ता और कमजोर की जुबान को आवाज देने के लिए हमारी पीढ़ी का प्ररेणापुंज बना रहेगा. आमीन।

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