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10.12.09

शब्दों का व्यापार कर रहे बुद्धिजीवी.

विस्फ़ोट पर संजयजी संतोष भारतीय पर अपनी भङास निकाल रहे हैं. संतोष भारतीय एक पत्रिका चलाते हैं- चौथी दुनियाँ. चौथी दुनियाँ में छपे एक आलेख में सांसदों को नपुंसक बता दिया गया. संसद में चौथी दुनियाँ के इस आलेख पर खूब हो-हल्ला मचा. संजयजी की कलम सरकारी सेवा में व्यस्त- सोनियाजी की खूब तारीफ़ कर रही है, विस्फ़ोट देख लें. और संतोष भारतीय के साथ पुरानी अदावत. तो एक तीर से दो शिकार करते हुये संजयजी ने इस मुद्दे को लपक लिया. वैसे राजनीतीज्ञों का क्या अपमान! ( और क्या मान!) वे इस सबसे ऊपर उठ गये हैं. मगर संजयजी उछल पङे. शब्दों के तीर चले- शब्द शूर तो हैं ही.... धुनी भी हैं. जिसके पीछे पङ जायें, उसकी बखिया उधेङना क्या बङी बात है.
लेकिन प्रिय संजय जी! इससे होगा क्या यार? ... विस्फ़ोटों से टूटता है, बनता कुछ नहीं. कलम कुछ बनाये, तो बात बने. संतोष भारतीय ने जो किया, वही आपने कर दिया- दोनों बराबर. दोनों शब्दों का व्यापार कर रहे हैं, और शब्द व्यापारकी वस्तु नहीं होते. आज तो शब्दका व्यापार ही सबसे बङा व्यापार बन गया है. साधु-सन्त, पूरी शिक्षा व्यवस्था, पूरा राजतन्त्र, लेखक-विचारक .... सभी शब्द-व्यापार में लगे हैं. एक भिखारी शब्द से रोटी कमाता है- और सन्त भी.... सोचकर देखें... दरिद्रता की पराकाष्ठा हो गई. भाषा मानव की श्रेष्ठता का प्रतीक है या निकृष्टता का! भाषा मानव- मानव के साथ व्यवहार का माध्यम है, उसको परम्पराने आजीविका का माध्यम बना दिया! यह आजीविका क्या जीने भी दे रही है? प्रतीक में कहूँ तो सरस्वती और लक्ष्मी एक ही पालेमें समा गई, क्योंकि विष्णु सो गये. विवेक सो गया. विवेक शून्य कार्य-व्यवहार सुख कैसे देंगे? पूरी मानव जाति दुःखों और समस्याओं के अनवरत चक्र में फ़ंस गई है, विचारें. वैसे एक त्वरित कुण्डली दोनों के भेजी है, आप भी आनन्द लें- साधक उम्मेद.
बुद्धिजीवी कर रहे शब्दों का व्यापार.
प्रतिस्पर्द्धा है मीडीया, तो भाषा बाज़ार.
भाषा हो व्यापार, संस्कृति हो खड्डे में.
संतोष और भारतीय दोनों गड्ढे में
कह साधक जीवन को बेचे बुद्धिजीवी.
शब्दों का व्यापार कर रहे बुद्धिजीवी.

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