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12.12.09

साधक की डायरी से!

१२-१२-२००९ प्रातः ५ बजे= काफ़ी ठंड है. स्नान करके नहीं बैठा तो अंगुलियाँ बोर्ड पर आने की बजाय दस्तानों में ही दुबकी रहना पसन्द करती हैं. कोफ़ी बनाकर ली, तो जीभ पर प्रतिरोध सा लगता है.सूर्योदय से पूर्व कुछ भी लेना सही नहीं होता, यह बात किसी पुस्तक में होने की क्या जरूरत है, शरीर के संवेदन ही आगाह कर देते हैं. जानते-समझते हुये भी कोफ़ी का बनना? दो कारण तो स्पष्ट हैं. रात वाला दूध कहीं फ़ट ना जाय, इसलिये पहले ही काम ले लिया. दूसरा सर्दी. फ़्रिज होने की भी यही वजह होती है, कि कहीं कोई सीज खराब ना हो जाय. प्रकृति संग्रह को स्वीकार नहीं करती. रात दूध को जमा कर ही सोना ठीक रहता. बच गया, तो पीना पङा... पेट तो खराब होता ही है. शरीर भी प्रकृति की तरह थोङा झेल लेता है. अति ही हो जाय तो बिस्तर! तो क्या इस प्रकृति के लिये भी कोई बिस्तर की व्यवस्था है? सह-अस्तित्व का तकाजा तो यही है. सृष्टि-चक्र स्वयं में पूर्ण है, तोङ-फ़ोङ पूर्वक रिपेयर हो जाता है अपने-आप. इससे भी ज्यादा हो जाय तो शरीर को छोङ कर चल देता है जीवन. मानव सब कुछ जानते हुये भी ज्यादती करता है. भ्रम के कारण मूल्यों का मूल्याँकन नहीं होता... फ़्रिज, कुकर, ओवन, कार... प्रकृति-विरुद्ध कई आयोजन दे दिये हैं विज्ञान ने. मानव कहता है कि अब इनको झेलना मजबूरी हो गया है. रख लिया, तो प्रयोग करना ही पङता है. यहाँ न गाङी, न फ़्रिज... कोई असुविधा नहीं. मुझे घर से बाहर जाना ही नहीं पङता. राशन वाला फ़ोनसे भेज देता है, सब्जी नीचे बगिया में-एकदम ताजा! फल वाला दरवाजे पर दे जाता है. न बाजार, न सिन्नेमा... समय ही कहाँ मिलता है! ... बात स्नान से शुरु हुई . कल रात खूमारामजी के मना करने पर भी हिम्मत करके स्नान कर लिया तो रोटी बहुत स्वादिष्ट लगी. सुबह-शाम का स्नान स्वस्थ रखता है. कल के स्नान में देरी हो गई थी... राजूदान जी आ गये, उनके साथ साहित्य चर्चा में समय का ध्यान ही ना रहा. बङी मजेदार रचनायें सुना गये. राजस्थानी के कवियों ने दोहा छन्द को खूब छाना है. कवि का नाम तो नहीं पर दोहे जीवन से भरे हुये.
ओगण ऊपर गुण करै, दिल को मेट दरद्द.
मार सकै मारै नहीं, वां को नाण्व मरद्द.१.

पातर प्रीत, पतंग रंग, तातै मद री तार.
पाछल पहर अऊत धन, जात न लागै बार. २.

सैल, अरि, धन, पंगरण, पतला भला ज एह.
इतरा तो जाडा भला, रूँख, कङूंबो, मेह. ३.

पेचां सुधरै पागङी,दामां सुधरै ब्याव.
नारी सुधरै शीळ स्यूं, नर सुधरै नेठाव. ४

हाथां परबत तोलता,दिन मं सौ-सौ बार.
बै सांवत माटी मिल्या, भांडा घङै कुम्हार. ५.

सम्मन रोवै कूण कूं, हँसै ज कूण विचार.
गया सु आवण का नहीं, रया सु जावणहार. ६

स्वानां कैरी मित्रता, दोनूं ही बातां दुक्ख.
खीज्यां काटै पांव नै, रीझ्यां चाटै मुक्ख. ७.

जळ, जोगी, आतस, अमल, तरूणी, तेग, तुरंग.
इतरा हुवै न आपणां, भूपति, सिंह, भुजंग. ८.

नारी, क्यारी,सजण जण, विद्या,गान, किसांन.
बार-बार संभाळिये, धान, पान, जुजमान. ९.

बङ बुगलां स्यूं बिगङै, बानर सूं बणराय.
बंस सपूतां बावङै, कौम कपूतां जाय. १०.

जिकण गांव मं च्यार नह, बणिक, बैद, जळ, न्याय.
बसणो तो अलगो रयौ, रात रह्यो नहीं जाय. ११

समय तो लगा, सात बजने को आ रहे हैं. मन्दिर की आरती सुनाई दे रही है. बीचमें जाकर दूध लाया, झाङू किया, स्नान भी... मगर दोहे बहुत मौजूं हैं. जीवन के गहरे अनुभवों का निचोङ भर दिया कवि ने एक-एक दोहे पर घंटों सत्संग हो सकता है. दूसरे दोहे की दूसरी पंक्ति का सच तो दुनियाँ का एक-एक आदमी भोग रहा है. ....पाछल पहर, अऊत धन जात न लागए बार.... पिछला पहर और गलत मार्ग से आया धन शीघ्र चला जाता है. ... सफ़लता और सुख की चाबियाँ हैं ये. जरूरी काम पहले पहर में करो, पिछले पहर में नहीं होगा. पिछले पहर को जाने में देर नहीं लगती. पिछला पहर आया ही क्यों? आलस्य और प्रमाद में होता है पिछला पहर! और गलत मार्ग से आया धन!... अमेरिका में मन्दी, अरब में दिवाला... और अपने आस-पास ऊगते नव-धनिक युवा... किसी के पास नहीं टिकता गलत धन. शोषण और ठगी से अमीरी भले आ जाय, दरिद्रता नहीं जाती. समृद्धि स्वावलम्बन में ही है. स्वावलम्बन अर्थात मानवेतर प्रकृति के साथ श्रम से किया गया उत्पादन. नीचे बगिया में इतनी सब्जी होने वाली है, कि सारा मोहल्ला खाये, तब भी बच जाय. ... पाछल पहर अऊत धन, जात न लागै बार.... स्नेह होती तो उसके साथ इन दोहों पर सत्संग चलता, आनन्द आता.


साधक की डायरी से!

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