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10.12.09

समझो धरती के दर्द को !

विकसित देश धरती के दर्द को नहीं समझ सकते. कारण भी स्पष्ट है. उनके जीने का ढंग ही प्रकृति-विरोधी है. उनका दर्शन कहता है कि अस्तित्व परस्पर विरोध पर टिका है, जबकि अस्तित्व स्वयं ही सह-अस्तित्व है. प्रकृति में सहयोग है, न कि विरोध. सारी कायनात परस्पर सहयोगी है, सिवाय मानव के.... सिवाय भ्रमित मानव के. पश्चिम के पास वह भाषा ही नहीं है जो जीवन को समझ सके, व्याख्यायित कर सके. धरती का दर्द भारत समझता है, (इंडिया नहीं, वह तो पश्चिम की ही भौंडी नकल मात्र है ), इसीलिये भारत ने विकास के इस माडल को नकार दिया है. नैनो का साणंद मे विरोध संकेत है, चेतावनी है सारे तन्त्र को जो विकास के पश्चिमी माडल का विकल्प सुनना ही नहीं चाहते. पहले सिंगुर से भगाया, अब साणण्द में भी प्रतिरोध का स्वर उठने लगा है.
साणंद में भी हो गया, नैनो का प्रतिरोध.
समझ गई जनता स्वयं,तभी हुआ गतिरोध.
हुआ तीव्र प्रतिरोध, कि पर्यावरण बचाने.
कार्बन उत्सर्जन से धरती माँ को बचाने.
साधक इस विकास माडल का अन्त हो गया.
नैनो का प्रतिरोध साणंद में भी हो गया.

मैंने सिंगुर प्रकरण पर पचासेक कुण्डलियाँ लिखी थी. यब मैं कोलकाता में था, वहाँ के स्पन्दन महसूस कर पाता हूँ. अभी राजस्थान के इस छोटे से कस्बेमें बैठा वही स्पन्दन अनुभव कर रहा हूँ. यदि मशीन फ़ोर्मेट करते समय वे कुण्ड्लियाँ नष्ट ना हो गई होंगी, तो आप पाठकों/दर्शकों को मिल जायेगी. अभी इतना ही.... साधक उम्मेद.

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