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13.12.09

साधक की डायरी से!-३ या ४

१२-१२-२००९ शाम ४ बजे. एक पुस्तक पूरी हुई, प्रभु की कृपा का स्पष्ट अनुभव कर पा रहा हूँ. नेट पर कुल ८२ लेखों को पढकर उनपर ट्टिपणियाँ डाली, ५७ अपने आलेख पोस्ट किये, अपना सारा नित्यक्रम करते हुये यह सब सम्पन्न हुआ. इस बात की प्रसन्नता स्नेह, सुनीता, राकेशजी , गोविन्दाचार्य और बिमल जी के साथ बाँटी. खुशियाँ बाँटने से बढती हैं और परेशानी (मेरे पास नहीं है कोई परेशानी ) कम हो जाती है, इसका प्रमाण पाया. इसी सात तारीख की रात को ब्राड्बैंड का तार जुङा तो पहला फ़ोन भूषण जी को किया. यह सारी पोस्टिंग नईआशा naiashaa.com पर डालकर उनको खुश करना चाहता था. यह मौका बात में ही गुम हुआ, तो तत्काल अपना नया ब्लाग बनाया, कुछ मित्रों की मदद से टिप्स लिये, भडास, नुक्कड आदि पर पोस्ट डाले और उनका प्रतिसाद पाकर भूषण को भुलाया. न भी भूले तो भी उन्होंने मेरा हित ही किया. सोमभाई ठीक कहते हैं कि हर घटना जागृति में सहायक होती है. चार दिनों में इतना काम मनमें उत्साह भर रहा है कि अपनी वेब साईट भी मैं जल्द बना सकूँगा. भूषण के आसरे रहता तो अपने पांवों पर कभी खङा न हो पाता. भला हो भूषण का. इस पूरे प्रकरण पर एक कहानी बनाना मेरे लिये आनन्द का काम होगा.
सिंगुर पर कभी पचासेक कुण्डलियां बनी थी. इस बीच यह कम्पुटर २-३ बार फ़ोरमेट हो गया, पहली बार ढूंढने से खाली डोकूमेन्ट मिला. सोच लिया कि अब वे रचनायें वापस नहीं मिलेंगी. मध्यस्थ दर्शन से परिचय के पूर्व बनी रचनायें हैं, अतः ज्यादा दुःख भी नहीं हुआ. पर यह तो कमाल हो गया. खोई वस्तु मिली, अवसर बना और उसे एडिट करके किताब का स्वरूप भी बन गया. इसे दोबारा देखकर और सजाया जा सकता है. कुछ गैप भी भर दिये जा सकते हैं.आनन्द है.
अक्टूबर-नवम्बर में डा. पाठक को आश्वासन दिया था कि इसी वर्षमें एक पुस्तक पूरी करके आपको दूँगा. उस समय दिमाग में सीडी पर बजते गीतों पर पुस्तक बनाने का था. वह पुस्तक तो अभी चल ही रही है, बीचमें संयोगसे यह पुरानी लिखी रचनाओं की पुस्तक पूरी हुई.यह लगभग वैसा ही है जैसे काम करते-करते लघु-शंका निवृत्ति की आवश्यकता बने. मैं उठकर नीचे जाने की सोचूँ. नीचे जाना ही है, तो क्यों न बेसिन के नीचे रक्खी पानी की बाल्टी भी साथ ले जाऊं, बगिया में डाल देनी है. बगिया में पानी दालते समय पालक के पास उगते वृथा पौधे को भी उखाङ दिया. पालक का स्पर्ष मन में हर्ष भरता है. उअह पालक बिक्री के लिये नहीं है, बाज़ार में इस्का मौल-तोल नहीं होगा. मौल-तोल जहाँ भी होता है, वहाँ मूल्यों का निर्वाह नहीं होता. चाहे किसी शादी योग्य लङकी-लङके का मोल-तोल हो, या किसी के साथ वेब साईट बनाने- चलाने के लिये हो.... मोल-तोल में मन दुखता ही है. मूल्यांकन होना चाहिये, मूल्यांकन में न्याय है. मूल्यांकन उभयतृप्ति का कारण बनता है. इस पालक का मूल्यांकन यह है कि यह हमारे भोजन में गुणवत्ता और पौष्टिकता बढाता है. इस पालक को मैं इसी भाव से देखता हूँ, तो मेरे मन की प्रसन्नता पूरे अस्तित्व के साथ जुङकर पालक को भी हर्षित करती है. अपने सही मूल्यांकन से प्रसन्न पालक और अधिक पौष्टिक बनता है..... चलो थोङा पालक काटकर ऊपर ले चलता हूँ, ज्यूस बनाकर पी लेता हूँ.

पालक तोङा, धोया और काटकर मिक्सी में ज्यूस बनाया. ज्यूस छाना. सारे उपकरण धोकर रक्खे. तत्काल धो लेने से कम पानी और कम समयमें काम हो जाता है. आलस्य करो, तो यही काम बोझ बन जाता है. तत्काल धोकर रखने से रसोई का मिजाज भी खिलखिलाता सा लगता है. कोई किसी भी समय मुझसे जावन-विद्या सीखने आये, और मेरी रसोई बेतरतीब देखे तो कैसा बुरा लगे! अपनी इसी आदत के कारण मेरा कोई काम पेंडिंग नहीं रहता... कामों की डिलीवरी बहुत तेज हो जाती है..... ज्यूस पीने बैठा.... अरे! मुझे तो पहले शंका-निवृत्त होना है! ... बस यही होता है मेरे साथ! काम कुछ करना था, हो जाता है कुछ! और तभी मुझे अस्थिर चित्त का माना जाता है. ठीक ही तो है. ज्यूस पीना भी ठीक, बगिया सींचना भी ठीक... मगर ज्यूस पीने से पूर्व शंका-निवृत्ति भी तो चाहिये! हाँ, हो जाती है शंका-निवृत्ति. ऐसा कभी नहीं होता कि ज्यूस पीने के बाद जाना पङा हो. अर्थात वह पुस्तक भी पूरी होगी, जिसके लिये पाठक जी को आश्वासन दे रक्खा है!

साधक की डायरी से!-३ या ४

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