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20.12.09

डायरी का एक पन्ना...


अरविन्द कुमार शर्मा

कालेज से बस स्टैण्ड तक का सौ रूपया। यह ऑटो कभी मीटर से नहीं चलते। ओर दिन होते तो शायद में अस्सी ही देता, पर आज चुपचाप सौ का नोट थमा दिया।क्यों ? अरे भई दस दिन की छुट्टियां मिली हैं। दिल्ली की भागदौड़ से दूर, अपने घर में पूरे दस दिन। अक्सर लोग कहते हैं -’दिल्ली है दिलवालों की’ , पर यहां आकर मैनें जाना कि ’दिल्ली है रफ्तारों की’। जो इसकी रफ्तार के साथ चल सका वो ही आगे बढ़ा वरना मुझ जैसे तो घर जाने का टिकट कराते ही रह गये। बरहाल इस समय मुझे घर पहुँचने की जल्दी है। बस चलने में अभी भी पंद्रह मिनट बाकी हैं। समय काटे नहीं कट रहा है। वो तो भला हो कि मुझे खिड़की के पास वाली सीट मिल गई है। यहां से मैं आराम से बाहर के नजारें ले पा रहा हूँ।नियत समय पर बस चली। यू. पी.में प्रवेश करने के साथ ही जीवनशैली में अन्तर भी दिखने लगा है।जिन्दगी की धीमी रफ्तार, हरे भरे पेड़ों की कतार व खाली सड़को पर दौड़ते वाहन। दिल्ली में ऐसे नजारें कम ही देखने को मिलते हैं। खिड़की से बाहर झांकने पर एक अजीब तरह का आनन्द मिल रहा है। ’बुरी नजर वाले तेरे बच्चे जिए’ पास से गुजरे ट्रक के पीछे यह पंक्तियाँ लिखी थी। सफर के दौरान मुझे दो चीजें हमेशा आकर्षित करती हैं। खूबसूरत चेहरे वाली लड़कियां और ट्रकों के पीछेे लिखी पंक्तियाँ। अक्सर लिखा देखा था ’बुरी नजर वाले तेरा मुँह काला’ , पर उसका गांधीवादी रूपान्तरण आज ही देखने को मिला।रास्ते में बस कुछ देर के लिए रूक गई, बाहर झांकने पर मालूम हुआ कुछ सवारी आ रहीं हैं। इसलिए बस प्रतीक्षा में खड़ी है। मुझे हरे रंग वाली डी। टी। सी। की याद आ गई। कैसे लोग घंटों प्रतीक्षा करने पर भी उनमें नहीं चढ़ पाते। क्योंकी उनकी रफ्तार बहुत तेज होती है। शायद इसीलिए कालेज के छात्रों ने डी। टी। सी। को दौड़ोगे तो चढ़ोगे का नाम दिया है। मौसम धीरे-धीरे खुशनुमा हो रहा था। शायद बूंदें गिरने को थी। मैनें बैग से किताब निकाली और पढ़ने लगा ।भवानी प्रसाद मिश्र जी की कविता कितना मेल खा रही थी परिस्थिति से।आज पानी गिर रहा है,घर नजर में तिर रहा है।एक बार फिर घर की यादें ताजा हो गई थीं। कितनी हिदायतें होती थी घर पर । ’घर जल्दी आना’,’सुबह जल्दी उठना’, ’रात को दूध जरूर पीना’। यह सब सुनते हुए कभी सोचा भी न था इस सफर के बारे में । जिसमें मैं बिल्कुल अकेला हूँ। न नसीहतें हैं। न नसीहतें देने वाले। शहर नजर आने लगा है। मेरा शहर । मैं जब भी यहां आता हूँ यहां कुछ खाली-खाली सा लगता है। कुछ अजनबी सा। शायद मैं ही धीरे -धीरें अजनबी हो रहा हूँ अपने शहर से। स्टैण्ड आ चुका है। बैग कन्धे पर डाल कर उतरते हुए अपनी एक तुकबन्दी याद आ रही है
बचपन के इस गाँव में बाकी क्या रह गया,
खण्डहर था एक पुराना अब वो भी ढह गया।।

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