१०-१२-२००९ शाम = रोटी बनाते समय जरा सा असावधान हुआ, और अंगुली तवे से लग गई. तत्काल तीन खयाल एक साथ आये-
१. बङा सावधान बनता है! लो , थोङा सा ब्लाग की तरफ़ ध्यान क्या गया, कि जला ली अंगुलि.
२- स्नेह को कभी नहीं सुना कि खाना बनाते समय ऐसी कोई दुर्घटना हुई हो, वह ज्यादा सावधान है.
३- जिस समय जो कर रहे हो ध्यान उसी तरफ़ रखो, वरना प्रकृति का नियम लागू ही है, समझो!
बाबा कहते हैं कि जीना परिवारमें ही बनता है. सच है. अभी स्नेह होती तो साथ-साथ लिखते-पढते. साथ-साथ होनेमें कोई बाधा भी नहीं है. बस, स्नेह का सारा विस्तार कोलकाता में बन गया, और मैंने अपना विस्तार होने ही नहीं दिया. स्नेह के लिये कल्याण आश्रम की बैठकें हैं- जो मैंने ही शुरु कराई थी. उसका पीहर है, बेटे-बहू और बेटी है- सभी पूरे व्यस्त. न रहे स्नेह तो सब घरको ताला मारकर चले जायें... पीछेसे संघके कार्यकर्ता और प्रचारक आते हैं.... सबको स्नेह मिलता है, ताजा नाश्ता मिलता है, आग्रह सहित भोजन विश्राम मिलता है. शबरी की तरह राह निहारती है स्नेह- और आजके (इस शबरीके) राम बार-बार धन्य भी कर जाते हैं. अपनी धुन में शबरी भूल ही गई है कि राम का काम सीता की सुध लेना है, और रावणी अनाचार को समाप्त करना है. यह शबरी तो राम के आतिथ्य में ही मगन हुई, सीता रोती रहे.
११-१२- २००९.प्रातः ८ बजे. शादी की ३४वीं साल गिरह. स्नेहको प्रेम-संदेश भेजने का भी वक्त नहीं, सिर्फ़ सूख सा फोन कर दिया. वह इसी पोस्ट को उपहार मान ले तो ठीक रहे. वैसे कामना यह है कि अब हम दोनों साथ-साथ रहें. इस कामना में कार्य की अधिकता का बहाना नहीं, अध्ययन की त्वरा का आग्रह है. सारा कार्य-व्यवहार जागृति-क्रममें सहायक होने लगा है. बगिया में शारीरिक श्रम हो या बङे घर में झाङू-पौंछा अथवा फिर इस कम्प्युटर पर बैठकर कहानी-कविता लिखना, सबका प्रवाह अन्दर की तरफ़ है. बाहर हेने वाले क्रिया-कलापों की दिशा अन्दर की तरफ़ हो जाये, यही तो साधना है. इसका प्रभाव भी स्पष्ट है. भारतजी की गालियाँ सुनने को मिली हों, सरदार शहर में सबका तिरस्क्कार मिला हो या चारों तरफ़ से मिल रही प्रशंसा... सब अध्ययन की वस्तु बन गये. समता बनी रही. स्वालम्बन सध जाये तो शिक्षा-संस्कारमें भागीदारी के अवसर तो बने ही पङे हैं. ब्लाग पर भी तो कमो-बेश यही चल रहा है. इस प्रयत्न में एक भी संभावित जीवन अपनी जागृति-यात्रा में आ सके तो काफ़ी है. और यह कार्य हम दोनों करें, साथ-साथ करें, साथ-साथ रहें, साथ-साथ जियें, साथ-साथ आनन्दित हों... .... साधक- उम्मेद
11.12.09
साधक की डायरी से !
Posted by Sadhak Ummedsingh Baid "Saadhak "
Labels: स्वालम्बन
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