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10.12.09

ग़ज़ल

जो कुछ हम सोच न पायें वही अक्सर निकलते हैं ।
यहाँ तो रहजन भी बनके अब रहबर निकलते हैं ॥
ये ऊँचे अम्बार कूड़े के न घबरा देखकर भाई ।
सफाई करके देखोगे की इसमें घर निकलते हैं ॥
चले थे पूजने जिनको मसीहा शान्ति का माना ।
उन्हीं की जेब से छूरे और खंज़र निकलते हैं ॥
न जाने किसने तोड़े उनके शीशों के महल साहब ।
यहाँ तो टेंट से लूलों के अब पत्थर निकलते हैं ॥
तुम्हें जंगल में जानेकी "कपूत" अब क्या जरुरत है ।
यहाँ तो दिन में ही सडकों पे अब अजगर निकलते हैं ॥

2 comments:

मनोज कुमार said...

चले थे पूजने जिनको मसीहा शान्ति का माना ।
उन्हीं की जेब से छूरे और खंज़र निकलते हैं ॥
आप की इस ग़ज़ल में विचार, अभिव्यक्ति शैली-शिल्प और संप्रेषण के अनेक नूतन क्षितिज उद्घाटित हो रहे हैं।

Sadhak Ummedsingh Baid "Saadhak " said...

जो इतने प्रतिभाशाली हैं
कि खींच कर स्वर्ग भी ला दें.
वो ही प्रतापगढी सपूत
स्वयं को कपूत कहते हैं.
ये गंगा ’गर बहे उल्टी,
तो कैसे शुभ बने बोलो,
कि शुभ के सारथि खुद को,
क्योंकर अशुभ कहते हैं?