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21.1.10

छोटे होकर तो देखिए बहुत बड़े हो जाएंगे

बड़े लोगों का अपनों से छोटों, सहकर्मियों के प्रति विन्रम व्यवहार हम देखते तो हैं लेकिन कई लोगों को यह नाटक लगता है। कभी सम्बंधित लोगों से बात करें तो पता चलेगा वे इस विनम्रता के बदले कितना समान देते हैं। किसी दिन अपने कार्य-व्यवहार में हम भी छोटे होने का प्रयोग करके देखें तो सही, हम सच में अपनों की नज़र में बड़े हो जाएंगे। याद रखें प्रकृति ने बरगद को अन्य वृक्षों के मुकाबले बड़े होने की सुविधा दी है लेकिन यह दुभाüग्य भी उसी के साथ जोड़ दिया है कि छोटे पौधे उसके नीचे नहीं पनपते जबकि कडुवे नीम को कार्य व्यवहार में प्रणरक्षक का समान मिला हुआ है। छोटे पौधे, तेजी से पनपने वाली बेल सहारा पाकर नीम से ऊंची निकल जाएं तो भी उसका प्राणवायु वाला व्यवहार नहीं बदलता। तय हमें करना है बरगद बनें या नीम।
एक निजी संस्थान में शाखा प्रबंधक स्तर के एक अधिकारी से मुलाकात के लिए सुबह पहुंचा तो मुझे एक रोचक अनुभव हुआ। कुछ पल बैठने का इशारा करके वे विभाग के अन्य वरिष्ठ-कनिष्ठ साथियों से रामा-श्यामा करने लगे। लगभग हर सहकर्मी के पास जाकर उन्होंने मुस्कुराते हुए गुडमोर्निंग की, सहकर्मी ने और अधिक प्रसन्नता दर्शाते हुए जवाब दिया।पांच-सात मिनट में वे अपने सभी सहकर्मियों से मिलकर लौट आए और बोले आज का दिन भी अच्छा ही गुजरेगा। मेरे चेहरे पर क्यों के भाव देखकर उन्होंने स्पष्ट किया कि यह उनका रोज का नियम है। सबके पास जाकर गुडमोर्निंग करते हुए मिलते हैं। सुबह की यह हंसी शाम तक पॉजिटिव एनर्जी का काम करती है। अगली सुबह फिर गुडमोर्निंग से बैटरी रिचार्ज कर लेते हैं।अमूमन कार्यालयों में आठ घंटों की वोर्किंग तो होती ही है और पॉजिटिव एनर्जी में इस तरह की किसी पहल में दस मिनट भी नहीं लगते, लेकिन कार्यालयों, फ्रेण्ड सर्कल या परिवार में कितने लोग पॉजिटिव एनर्जी बनाने में सहयोग करते हैं? जबकि यह एनर्जी जुटाने के लिए पॉवर कट जैसी समस्या से भी नहीं जूझना पड़ता।मेरा मानना है बड़ा होना या बड़े पद पर बैठना आसान है लेकिन उस बड़े पद की गरिमा के मुताबिक काम करना ज्यादा चुनौतिपूर्ण है। शासकीय कार्यालयों में तो वरिष्ठ अधिकारियों के दो-तीन साल में ट्रांसफर होते ही रहते हैं। शासकीय कार्यालयों में तो पूर्व में कौन-कौन अधिकारी पदस्थ रहे बोर्ड पर सभी के नाम भी लिखे होते हैं। ऐसा क्यों होता है कि ढेरों नामों की सूची में गिने-चुने अधिकारियों के नाम ही विभागीय कर्मचारियों या शहर के लोगों को याद रहते हैं? बड़ी कुर्सियों पर बैठने वाले कितने लोग अपने से छोटे लोगों का दिल जीत पाते हैं? खुद बॉस टेबल टू टेबल जाकर अपने मातहत साथियों से गुडमोर्निंग नहीं भी करें तो बॉस या स्टॉफ की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा, फिर कुछ ही लोग क्यों ऐसे होते हैं! शायद इसीलिए कि याद रखने योग्य भी तो कम ही लोग होते है!दस लाख की गाड़ी खरीदने वाला तो इस हकीकत को जानता है कि जब अचानक बीच रास्ते में गाड़ी रुक जाएगी तो धत लगाने के लिए ठेला धकाने, पंचर पकाने वाले का भी सहयोग लेना पड़ सकता है। अचानक नहर-तालाब फूटने के हालात बनने पर रेत का एक कण हमें अनुपयोगी लग सकता है लेकिन इन्हीं सारे रेतकणों वाली बोरियां तबाही मचाने को आतुर पानी को कुछ देर में असहाय कर देती हैं।काम बड़ा हो या छोटा सिर्फ बोलते रहने से ही हो जाए तो सारे लोग घरों में रट्टू तोते ही न पाल लें! कोई भी काम को लक्ष्य तक पहुंचाने के लिए सामूहिक सहयोग जरूरी होता है और यह टीम वर्क से ही सम्भव होता है। मैच जीतने पर कप्तान को ट्रॉफी, युद्ध जीतने पर सेनाध्यक्ष की पीठ जरूर थपथपाई जाती है लेकिन इन सभी को पता रहता है बिना टीम एफर्ट के जीत सम्भव नहीं थी। जब आपसी समझ ही नहीं बन पाएगी तो साथ काम करते हुए भी कोई क्यों एक-दूसरे को सहयोग करेगा। बड़े पद वाले यदि अपनी कुर्सी, मोटी तनख्वाह के अहं से घिरे रहेंगे तो नुकसान उन्हीं का होना है क्योंकि छोटे लोगों का प्रतिशत घर-कार्यालय में अधिक होता है।मुझे तो लगता है बड़े पदों वाले अपने कार्य-व्यवहार से जितने छोटे हो जाएं अपने कार्यक्षेत्र में उतने ही बड़े हो सकते हैं। खजूर और बरगद की तरह बड़ा होना किसी काम का नहीं क्योंकि न तो किसी को छांव मिल पाती है और न ही बाकी पौधे पनप पाते हैं। वैसे अब तो बरगद का दंभ भी टूटने लगा है। कई घरों में बोंसाई बरगद छोटे से गमले में देखा जा सकता है। बोंसाई बरगद, उन घरों-कार्यालयों में जरूर होने चाहिए जहां ओहदे, तनख्वाह, संपन्नता की धुंध, भीषण गर्मी में भी नहीं छंट पाती। छोटे बनकर हम और बड़े हो सकते हैं यह सूत्र याद रखलें तो घर-बाहर, हमारे व्यवहार में जो बदलाव आएगा निश्चित ही वह पॉजिटिव एनर्जी ही बढ़ाएगा।

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